पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९४४

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पष्ट सापान, लङ्काकाण्ड । चौ०-बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई । अङ्गद चलेउ सबहि सिर नाई ॥ प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का । रन-बांकुरा बालि-सुत बङ्का ॥१॥ चरणों की वन्दना करके महिमा हदय में रखकर सब को सिर नवा कर अङ्ग चले। रगबाँकुरे बाँके वाजिकुमार स्वामी के प्रताप से मन में सहज ही निर्भय हैं ॥१॥ पैठत रावन कर बेटा । खेलत रहा सो होइ गइ मैंदा।। बातहि बात करप बढ़ि आई। जुगल-अतुल-शलपुनि तरुनाई ॥२॥ रावण का लड़का खेल रहा था, पुर में पैठते ही उससे भेट हो गई। बात ही बात में कर्ष (लड़ाई का जोश) बढ़ पाया, दोनों जवान फिर अलीम बलवाले हैं ॥२॥ ताव बढ़ने के लिए एक ही कारण अतुल-बल पर्याप्त है, फिर तरुणता का होना द्वितीय समुच्चय अलंकार है। वोह इस प्रकार बढ़ा कि रावण के पुत्र ने पूछा-तु कौन बन्दर है ? अङ्गद ने कहा-मैं रामचन्द्रजी का दूत हूँ। राक्षस ने कहा-या वही रामचन्द्र जिनकी स्त्री को हमारे पिता पकड़ लाये हैं ? अव ने कहा- -हाँ-जिन्होंने तुम्हारी वुश्रा को नकटी और धूची बना दिया है। तेहि अङ्गद कहैं लात उठाई । गहि पद पटके उ भूमि भवाई ॥ निसिचर-निकर देखि अट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिँ पुकारी ॥३॥ उसने अङ्गद को (मारने के लिए) लात उठाया, इन्होंने पाँव पकड़ घुमा कर धरती पर पटक दिया (वह मर गया)। भारी योमा देख कर राक्षस-वृन्द जहाँ तहाँ भाग चले, मार उरके पुकार नहीं सकते ॥३॥ बन्दर का पराक्रम रात को खूब याद है। इधर भारी भट देख कर वितविक्षप से पास सञ्चारी भाव है। उधर अपनी दुनौति विचारते हैं कि राजपुत्र मारा गया, पर मैं वहाँ रह कर कुछ कर न सका । यदि रावण सुनेगा तो वध कर डालेगा, न पुकारना और न एक दूसरे से यह भेद कहना शङ्का सञ्चारी भाव है। एक एक सन मरम ने कहीं। समुझि तासु वध चुप करि रहहीं ॥ भयउ कोलाहल नगर मझारी । आवा कपि लङ्का जेहि जारी ॥४॥ एक दूसरे से भेद नहीं कहते हैं, राजपुत्र का वध समझ कर चुपके रह जाते हैं ( मानों उनके सामने कोई दुर्घटना हुई ही नहीं)। सारे नगर में हल्ला हुआ कि जिस वन्दर ने लङ्का जलाई, वही फिर पाया है ॥४॥ अब धौँ काह करिहि करतारा । अति-सभीत सब करहि बिचारा ॥ बिनु पूढे मग देहि देखाई । जेहि बिलोक सेाइ जाइ सुखाई ॥५॥ या विधाता! अब न जाने क्या करेगा ? अत्यन्त भयभीत होकर सप विचार करते हैं। बिना पूछे रास्ता दिखा देते हैं, जिस भोर युवराज निहारते हैं यह सूख जाता है ॥५॥ .