पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९४५

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रामचरित मानसे। राक्षसों के मन में भय स्थायीभाव है। अहद पालम्बन विमाव है, राजपुत्र का वध उहीपन विभाव है, बिना पूछे ही मार्ग दिखाना और निहारने पर सूरब जाना अनुभाव है। वह दैन्य, आवेग, चिन्ता, शङ्का श्रादि समचारी भावों से वृद्धि को प्राप्त हो कर भयानक चौ--तुरत दो०-गयउ सभा दरबार तब, सुमिरि राम-पद-कञ्ज। सिंह-ठवनि इत उत चितव, धीर-बीर-बल-पुज ॥१८॥ तव रामन्द्रजी के चरण कमले को स्मरण कर के सभा-द्वार पर गये। धीर वीर बल के राशि अङ्गद सिंह के ढङ्गले सड़े हो कर इधर उधर देख रहे हैं ॥ १८ ॥ 'सभा और दरवार' पर्यायवाची शब्द हैं। दोनों का अर्थ एक होने से पुनरुक्ति का आभाल है परन्तु विचार करने से पुनरुक्ति नहीं है। एक कचहरी-राजसमा का बोधक है और दूसरा द्वार वा दरवाजे का ज्ञापक होने से 'पुनरुक्तिवदाभास अलंकार' है। निसाचर एक पठावा । समाचार रावनहि जनावा ॥ सुनत बिहलि बोला दससीसा । आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥१॥ तुरन्त एक राक्षस को भेज कर अपने आने की खबर सूचित कराया। सुनते ही रावण हँस कर वोला-कहाँ का बन्दर है ? बुला लामो ॥१॥ आयसु पाइ दूत बहु धाये। कपि-कुञ्जरहि बोलि लेइ आये ॥ अङ्गद दीख दसानन बैसा । सहित प्रान कज्जल गिरि जैसा ॥२॥ शाज्ञा पा कर बहुत से दूत दौड़े और कषि श्रेष्ठ को बुला कर सभा में ले आए। अगद ने दशानन को वैठे देखा, वह ऐसा मालूम होता है जैसे जीवधारी कालापहाड़ हो ॥२॥ भुजा बिटप लिर सृङ्ग समाना । रामावली लता जनु नोना ॥ मुख नासिका नयन अरु काना । गिरि कन्द्रा खोह अनुमाना ॥३॥ भुजोएँ वृक्ष के सिर पर्वत के शिखर की वरह है और रोमावली मानों अनेक जाति को लताएँ हैं। मुख, नाक, आँख और कान पर्वत की गुफा तथा गहरे गड्ढे मालूम होते हैं ॥३॥ गयउ सभा मल नेकु न मुरा । बालि-तनय अति-अल-बाँकुरा ॥ उठे सभासद कपि कह देखी । रावन उर मा क्रोध बिसेखी ॥४॥ अत्यन्त बली बाँके वालिकुमार दरवार में गये, उनका मन ज़रा भी नहीं मुड़ा। अहदको देख कर दरवार के लोग उठ खड़ हुए, यह देख-रावण के मन में बड़ा क्रोध हुभा ॥४॥ सब सभासद डर के मारे घबरा कर खड़े हो गये; पर रावण ने समझा कि उन्होंने अन्दर के सम्मानार्थ ऐसा किया है, इससे मन में क्रोधित हुआ 'असूया सञ्चारीमाव है। समान,