पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९४७

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८७२ रामचरित मानस। स्त्रियों को साथ ले जनकनन्दिनी को आदर पूर्वक आगे घर के सारा भय छोड़ इस तरह (रघुराथजी की शरण में) चलो ॥४॥ दाँतों से तिनका दबाने और गले पर कुल्हाड़ी रखने में अपने को पशु तथा आत्मघाती, मूर्ख सूचित करने का भाव 'अस्फुट गुणीभूत व्या है। दो--प्रनतपाल रघुबंस-मनि, त्राहि त्राहि अब मोहि । आरत गिरा सुनत प्रभु, अमय करहिंगे तोहि ॥२०॥ जहाँ तुमने कहा कि हे शरणागतपालक रघवंश मणि । अब मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए । प्रभु रामचन्द्रजी दीनता भरी वाणी सुनते ही तुम को निर्भय कर देंगे ॥२०॥ चौ०-रे कपि पत्ति न बोलु सँभारी । सूढ़ न जानहि माहि सुरारी॥ कहु निज नाल जनक कर भाई। केहि नाते मानिये मिताई ॥१॥ अरे बन्दर के बच्चे ! सँभल कर नहीं बोलता, मूर्ज ! मुझको नहीं जानता कि मैं देवताओं का शत्रु हूँ। आई तू अपना और अपने बाप का नाम कह, किस नाते से मित्रता मानता है ॥१॥ बन्दर मेरा मित्र कय हुश्रा ? यह ध्वनि सूचित होना वाच्यसिद्धाइ गुणीभूतव्यह' है। अङ्गद नाम बालि कर बेटा । ता. साँ काहुँ भई हो भेंटा। - अङ्गद बचन सुनत सकुचोना। रही बालि बानर मैं जाना ॥२॥ मेरा अंगद नाम है और मैं काली का पुत्र हूँ, उसले कभी भेंट हुई होगी। अंगद की बात सुनते ही संघण सकुचा गया और बोला- वाली एक पन्दर था, उसे मैं जानताएं ॥२॥ रावण वाली से पराजित हुआ था, उसे सन्देह हुन्ना कि कहीं अंगद उस' छिपी बात को प्रकट न करदे । इस अभिप्राय से झटपट दूसरी बात कहना 'पिहित अलंकार है। अङ्गद तहीँ बालि कर बालक । उपजेहु बंस अनल कुल-चालक ॥ गर्भ न गयउ व्यर्थ तुम्ह जायहु । निज-मुख तापस दूत कहायहु ॥३॥ पारे ! बाली का पुन अंगद तू ही है। अपने कुल का नाश करने के लिए तु बाँस की आग हो कर उत्पन्न हुआ । गर्भ क्यों नहीं गिर गया, तू व्यर्थ ही जन्मा जो अपने मुँह से तपस्वी का दुत कहलाता है ॥३॥ 'वंश' शब्द के दो अर्थ 'बाँस और कुल' जब तक न लिये जाँय तब तक रुपक का चमत्कार नहीं भासता। मुख्य रूपक के अन्तर्गत यह श्लेष. द्वारा दूसरा रूपक भासित होने से 'परम्परित रूपक अलंकार है। अब कहु कुसल बालि कहँ अहई । बिहँसि बचन तब अङ्गद कहई । दिन दस गये बालि पहँ जाई । बूझेहु कुसल सखा : उर लाई ॥४॥ अब बाली को कुशल कह, वह कहाँ है ? तब हँस कर अंगद वचन कहने लगे। इस दिन जाने पर पाली के पास जानोगे, वहीं मित्र को छाती से लगा कर कुशल पूछना ॥१॥