पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५०

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षष्ठ सोपाल, लङ्काकाण्ड । ८७५ खो के वियोग से हीन हो गया है और उसका छोटा भाई अपने बन्धु के दुःख से दुःखी होकर उदास हुश्रा है॥२॥ तुम्ह सुनीव कूल-द्रुम दोऊ । अनुज हमार भीक अति सोऊ । जामवन्त मन्त्री अति बूढ़ा। खो कि होइ अब समर-अरूढा ॥२॥ तुम और सुग्रीव दोनों (द्रोह रूपी नदी के) तीर के वृक्ष हो, हमारा छोटा भाई बड़ा झी डरपोक है । जामवन्त मन्त्री अत्यन्त खुट्टा है, अब वह युद्ध में क्या ठहर सकता सिल्प-कर्म जानहिँ नल-नीला । है कपि एक महा-बल-सीला।। आवा प्रथम नगर जेहि जारा । सुनि हँसि बोलेउ बालिकुमारा ॥३॥ नल और नील पत्थर का काम जानते हैं, हा-एक पन्दर बड़ा बलशाली है। पहले भाया था, जिसने नगर जलाया है। यह सुन बालिकुमार हँस कर बोले ॥३॥ रावण प्रत्यक्ष में हनुमानजी के पराक्रम की प्रशंसा करता है, परन्तु मगर जलानेवाला कहने से निन्दा प्रकट होना 'व्याजनिन्दा अलंकार' है। क्योकि आग लगाना, विष ऐना, धोखे में वध करना आदि आतताइयों का काम है। कोई शरवीर इस तरह का धर्मविरुद्ध काम नहीं कर सकता, यही निन्दा प्रकट होती है। सत्य बचन कहु निसिच्चार-नाहा । साँचेहु कीस कीन्ह पुर-दाहा ॥ रावन नगर अलप कपि दहई । सुनि अस बचन सत्य को कहई ॥४॥ 'हे राक्षस राज ! सच्ची बात कहो, सचमुच बन्दर ने लङ्कापुरी जलाया ! रावण की नगरी को छोटा सा बन्दर जला दे, पेसो पात सुनकर कौन सब कहेगा ? ॥ रावण ने राम लक्ष्मण, सुग्रीव, जाम्बवान, नल, नीलादि को समर के अयोग्य ठहरा कर अकेले पवनकुमार की प्रशंसा आततायीपन. में की है। तदनुसार जानो हुई वात पर अनजान की तरह आश्वयं प्रकाश करते हुए उसे मिथ्या सिद्ध करने के अमित प्राय से अपने पूज्यवरों को प्राक्षेप से बचाने में 'शठं प्रति शरट्यं कुर्यात्' की नीति का अनु. सरण अंगद ने किया है। जो अति-सुभट साहेहु रोक्न । सो सुग्रीव केर लघु-धावन । घलइ बहुत सा बीर न हाई। पठवा खबर लेन हम साई. ॥५॥ हे रावण ! जिसे तुम बड़ा योदा कह कर सराहते हो, वह सुग्रीव का एक छोटा हरकारा है । जो बहुत चलता है वह वीर नहीं होता, हमने खबर लेने के लिये भेजा था ॥ दो०-सत्य नगर कपि जारेज, बिनु प्रभु आयसु पाइ। फिरि न गयउ सुग्रीव पहि, तेहि भय रहा लुकाइ । सचमुच सन्दर ने बिना स्वामी की आज्ञा पाये नगर जलाया ! इसी डर से छिप रहा, वह लैोट कर सुग्रीव के पास नहीं गया।