पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५२

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८७७ i । । पष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । फिरते हैं । नाच फूद कर लोगों को रिझाते और स्वामी की भलाई करते हैं, इस धर्म को बड़ी होशियारी से नियाहते हैं ॥१॥ प्रत्यक्ष में रावण प्रशंसा कर रहा है, परन्तु विचारने पर निर्लज्ज होने की निन्दा सुचित होना 'व्याजनिन्दा अलंकार' है। 'धन्य कोश' कहने में लक्षणामूलक व्यंग है, क्योंकि धिक के स्थान में धन्य कह दोष नहीं प्रकाश किया है। अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कम न कहसि एहि आँतो। मैं गुन-गाहक परम-सुजाना । तब कटुरदनि करउँ नहिँ काना ॥२॥ हे अंगद ! तेरी जाति ही स्वामि-मक है, फिर तू इस तरह स्वामि का गुण पयों न कहे ? पड़ा चतुर गुण-ग्राहक हूँ, तेरे कटुवचन पर कान नहीं करता हूँ ॥२॥ अपनी आत्मप्रशंसा से अजद को मूर्ख बकवादी ठहराने का भाव व्यक्षित होना वाच्यविशेष व्यंग है। कह कपि तब गुन-गाहकताई । सल्य पवन-सुत माहि सुनाई ॥ बन- विन्स सुत-बधि पुर-जारा । तदपि न तेहि कछु कृत अपकारा ॥३॥ अङ्गद ने कहा-तुम्हारी गुण ग्राहकता सही है, उसे पवनकुमार ने मुझे सुनाया है। उन्होंने ने तुम्हारा धगीचा नष्ट किया, पुत्र को मार डाला और नगर जला दिया, तो भी तुमने उनकी कुछ घुराई नहीं की ॥३॥ सोइ बिचारि तन प्रकृति सुहाई । दसकन्धर मैं कोन्हि ढिठाई । देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा । तुम्हरे लाज न रोष न माषा ॥४॥ हे दशानन ! वही तेरा सुन्दर स्वभाव समझ कर मैंने दिलाई की है। जो कुछ हनूमानजी ने कहा था वह श्रा आँखों देखा, तुम मैं न लज्जा है, न क्रोध है और न माँख है ॥४॥ 'गुण-प्राहकता, अच्छी प्रकृति आदि के सीधे अर्थ को छोड़ कर तद्विपरीत गुणहीन, मीच स्वभाव श्रादि प्रकट होना व्यञ्जनामूलक ध्वनि है। जौं असि मति पितु खायेहु कीसा । कहि अस बचन हँसा दस सीसा॥ पितहि खाइ खाते पुनि ताही । अबहीं समुझि परा कछु माही ॥५॥ अरे बन्दर यदि तेरी ऐसी बुद्धि न थी तो पिता को कैसे खाया? ऐसा वचन कह कर रावण हँसा । अंगद ने कहा-पिता को खा कर फिर तुझे खा जाते, पर अभी मुझे कुछ समझ पड़ा है ( इस से तुझ को छोड़ता हूँ) ॥५॥ बालि-बिमल-जस-भाजन जालो । हतउँ न तोहि अधम अभिमानी ॥ कहु रावन रावन जग केते। मैं निज सबन सुने सुनु जेते ॥६॥ अरे नीच अभिमानी ! तुझे बाली के निर्मल यश का पात्र समझ कर मैं नहीं मारता हूँ। हे रावण ] कह तो सही, जगत में कितने रावण हैं ? मैं जितने अपने कान से सुन चुक्षा, उसे सुन ॥६॥ .