पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५३

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रामचरित मानस । रावण को मारने की बात का समर्थन वाली का पवित्र यशपात्र कह कर करना 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। क्योंकि जस्तक रावण जीता रहेगा तनतक काँख में दवाने की कीर्ति (वाली की शूरता) संसार में सप्रमाण प्रकट है। बलिहि जितल एक गयउ पताला । राखा बाँधि सिसुन्ह हयसाला। खेलहि बालक मारहिं जाई । दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई ॥७॥ एक रावण राजा बलि को जोलने पाताल गया, वहाँ लड़कों ने उसे घुड़साल में बाँध रक्खा था। सव बालक खिलवाड़ में जा कर मारते थे, पलि को दया लगी, उन्हों ने छुड़वा दिया ॥७॥ एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेखा। ॥ कौतुक लागि भवन लेइ आवा । सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा 110 फिर एक रावणको सहस्रार्जुन ने देखा तो इस तरह दौड़ कर पकड़ लिया जैसे कोई विलक्षण जन्तु को पकड़े। तमाशा के लिए घर ले आया, पुलस्त्य मुनि ने जो कर उसे छुड़वो दिया || दो०-एक कहत माहि सकुच्च अति, रहा बालि की काँख । इन्ह मह रावन ते कवन, सत्य बदहि तजि माँख ॥२४॥ एक रावण का वृत्तान्त कहने में मुझे बड़ा सकोस है, वह पाली की काँख में दबा था। इनमें तू कौन रावण है ? माँख छोड़ कर सच कह ॥२४॥ गद के वाक्यों में व्यञ्जनामूलक ध्वनि है कि ये सभी घटनाये तुम्हीं पर तो नही बीती हैं। चौ०-सुनु साठ सेाइ रावन छल-सोला । हर-गिरि जानु जासु भुज-लीला जान उमापति जासु सुराई । पूजेउँ जेहि सिर-सुमन चढ़ाई ॥१॥ रावण ने कहा-अरे मूर्ख । सुन, मैं वह बलशाली रावण हूँ जिसके भुजाओं की लीला कैलास पर्वत जानता है और जिसकी शरता उमाकान्त जानते हैं, जिनकी पूजा मैं ने अपने मस्तक रूपी फूलों को बढ़ा कर की है ॥१॥ कैलास पर्वत उठाने और सिर काट कर शिवजी को चढ़ाने के सम्बन्ध से रावण अपनी शूरता वर्णन में अतिशयोति प्रकट करता है। औरों की अपेक्षा शूरता और बल में अपने को पढ़ कर मानना 'गई सारीभाव' है। सिरसरोज निज करन्हि उतारी । पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥ 'भुज विक्रम जानहिँ दिगपाला । सठ अजहूँ जिनके उर साला ॥२॥ मस्तकरूपी कमलो को अपने हाथों उतार कर अनेक बार शिवजी का पूजन किया। अरे दुष्ट ! मेरी भुजाओं का पराकम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में अब भी उसकी पीड़ा है ॥ २॥