पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५५

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रामचरित मानस। बैनतेय-खग अहि-सहसानन । चिन्तामनि पुनि उपल दसानन । सुनु मतिमन्द लोक-बैकुंठा । लाम कि रघुपति-भगति-अकुंठा ॥ गरुड़ पक्षी हैं ? शेषनाग सप है ? चिन्तामणि पत्थर है ? वैकुण्ठ लोक है? और फिर रे नीच बुद्धि रावण! सुन, क्या रघुनाथजी की प्रखण्ड-भक्ति लाम है ? ॥४॥ प्रसिद्ध वस्तुओं का निषेध प्रकट करना अर्थात् रामचन्द्र मनुष्य नहीं हैं, कामदेव धन्वी नहीं है, गङ्गा नदी नहीं हैं इत्यादि प्रतिषेध अलंकार' है। काकु से विशेषता की धनि व्यजित होती है कि सब मनुष्यों के समान रामवन्द्रजी मनुष्य नहीं है, सब धनुर्धरों की तरह काम धन्वी नहीं है और सब नदियों की भाँति गङ्गा नदी नहीं है इत्यादि। दो०-सेन सहित तब लान सथि, बन-उजारि पुर जारि । कस रे सठ हनुमान कपि, गयउ जो तब सुत मारि ॥२६॥ जो हनूमान सेना सहित तेरा मान-मर्दन कर, बगीचा उजाड़ा, नगर जलाया और तेरे पुन (अक्षयकुमार) को मार कर गये, क्यों रे दुष्ट ! वे अन्दर हैं ? ॥२६॥ ध्वनि से यह अर्थ प्रकट होना कि जिन्हों ने ऐसे भीम पराक्रम किए वे बन्दर कदापि नहीं, रुद्र के अवतार हैं । व्यञ्जनामूलक गढ़ व्यन है। चौ०-सुनु रावन परिहरि चतुराई । मजसि न कृपासिन्धु रघुई ॥ जाँ खल मयेसि राम कर तोही । ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥१॥ हे रावण ! सुन, चालाकी छोड़ कर कृपासागर रघुनाथजी को क्यों नहीं भजना ? अरे दुष्ट ! यदि तू रामचन्द्रजी का द्रोही हुआ तो ब्रह्मा और रुद्र भी तेरी रक्षा नहीं कर सकते ॥१॥ लक्षणा मूलक व्यङ्ग है जिनके वर का तुझे बड़ाघमण्ड है राम-द्रोही की रक्षा करने में चे अशक्य हैं। मूढ़ वृथा जनि मारसि गाला । राम-शयर अस होइहि हाला॥ तव सिर-निकर कपिन्ह के आगे । परिहहिँ धरनि राम-सर-लागे ॥२॥ अरे मूर्ख ! झूठमूठ गाल मत वजावे, रामचन्द्रजी के बैर से यह हाल होगा कि रामबाण के लगने पर तुम्हारे समूह मस्तक वानरों के सामने धरती पर (कर कट कर ) गिरेंगे ॥२॥ ते तब सिर कन्दुक इक नाना । खेलिहहिँ भालु कोस चौगाना । जबहिँ समर कोपिहि रघुनायक । छुटिहहिँ अति कराल बहु सायक ॥३॥ तुम्हारे उन मस्तकों को अनेक भालू और चन्दर मैदान में गेंद की तरह खेलेंगे । जिस समय संग्राम में रधुनाथजी क्रोधित होगे और अतिशय भीषण बहुत से वाण छूटगे ॥३॥ तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा अस विचार भजु राम उदारा सुनत बचन रावन परजरा । जरत महानल जनु धुन परा॥४॥ सब क्या इस तरह तुम्हारा गाल चलेगा? ऐसा समझ कर उदार रामचन्द्र जी कोमजा अङ्गद की बात सुनते ही रावण अधिक जल गया, मान प्रचण्ड अग्नि में घी पड़ा हो ॥३॥