पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५६

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१ षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । दो०-कुम्भकरन अस बन्धु सम, सुत प्रसिद्ध सकारि । भार पराक्रम नहिँ सुनेहि, जितेउँ चराचर झझारि ॥२०॥ मेरे कुम्भकर्ण ऐसा भाई और इन्द्र को जीतनेवाला प्रसिद्ध पुत्र है। तू ने मेरे पराकाम को नहीं सुना कि मैं ने जड़ चेतन मय सारे संसार को जीत लिया ? ॥२७॥ बन्धु, पुत्र और अपने बल के विषय में रामचन्द्रजी की अपेक्षा अपने में अधिकत्व प्रदर्शित करना 'गर्व सञ्चारी भाव' है। नीचे के दोहे पर्यन्त इसी भाव की प्रधानता है । चौ०-सठ साखामृग जोरि हाई । बाँधा सिन्धु इहइ प्रभुताई ॥ नाँघहिँ खग अनेक बारीला । सूर न होहि ते खुनु खज कोसा ॥१॥ मूर्ख बन्दरों की मदद जुटा कर समुद्र बाँध दिया, बस-यही प्रभुतान हे सन्द ! सुन, समुद्र तो कितने ही पक्षी लाँघ जाते हैं, पर वे सब शूरवीर नहीं है। सकते ॥१॥ रामन्चगजी का पुल बाँधना उपमेय वाक्य है और पक्षियों का समुद्र नाँधना उपमान वाक्य है । उपमान द्वारा उपमेय का गर्व परिहार करना 'वित्तीय प्रतीप अलंकार' है। मम-भज-सागर बल-जल-पूरा । जहँ बूढ़ें बहु सुर-नर-सूरा ॥ बीस पयोधि अगाध अपारा को अल बीर जो पाइहि पाश ॥२॥ मेरे बाहु रूपी समुन्द्र बल रूपी जल से भरे हैं जिसमें बहुत से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब गये हैं। बहुत गहरे सीमारहित ये बील समुद्र हैं, कौन ऐसा योद्धा है जो हनले पार पावेगा ॥२॥ इन वाक्यों से बंधे हुए समुद्र की लधुता व्यजित करना 'गुणीभूत व्या है कि उस साधारण समुद्र पर पुल बंध गया तो पया ? अभी बीस असाधारण सागर पड़े हैं। दिगपालन्ह मैं नीर भरावा । भूप सुयस खस माहि सुनावा ॥ जौँ पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु-गुन-गाथा ॥३॥ अरे खल ! मैं ने दिगपालों से पानी भरवाया, तू राजा का यश मुझे सुनाता है। यदि तेरा खामी अच्छा शूरवीर है, जिसके गुण की कथा तू बार बार कहता है ॥३॥ तो बसीठ पठवत केहि काजा । रिपु सेन प्रीति करत नहिं लाजा ॥ हरगिरि-मथन निरखु-मम पाहू । पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराह॥४॥ तो दूत किस मतलब से भेजता है । शत्रु से प्रीति करते हुए उसे लज्जा नहीं आती? अरे मूर्ख बन्दर । कैलास पर्वत को मथनेवाली मेरी भुजाओं को देख. फिर अपने मालिक की बड़ाई कर ॥३॥ 'मथन' शब्द में सदि लक्षणा है । कैलास पर्वत दही, दूध या पानी नहीं है जो मथा जा सकेगा, मुख्य अर्थ का वाध होने पर भी वचन व्यवहारिक है। मुख्यार्थ उठाने का है। भुजा दिखा कर अपनी महान शूरता व्यजित करने का भाव अगढ़ व्या है। N