पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५७

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रामचरितमानस । दो०-सूर कपन रावन सरिस, स्व कर काटि जेहि सीस। हुने अनल असि-हरण बहु,-बार साखि गौरीस ॥२८॥ रावण के बराबर शूर कौन है । जिसने अपने हाथों से सिर काट कर बड़ी प्रसन्नता के साथ बहुत बार अग्नि में हवन कर दिया, इसके साक्षी शिवजी है ॥ २ ॥ सभा की प्रति में 'हुने अनल महँ धार बहु, हरपि साखि गौरील पाठ है। चौ-जरत बिलोकेजबहिँ कपाला। विधि के लिखे अङ्क निज भाला ॥ नर के कर आपन बध बाँची ।हँसेउँ जानि विधि गिरा असाँचा॥१॥ जव मस्तकों को जलते देखा तो अपने ललाट में ब्रह्मा के लिखे अक्षरों को पढ़ा। मनुष्य के हाथ मेरी मृत्यु उन्हों ने लिखी है, ब्रह्मा की यात मूठ जान कर मैं हंसा ॥ १ ॥ ब्रह्मा के लिखे नाङ्क झूठ हो नहीं सकते, इस सच्ची बात को जानते हुए भी उसे झूठ अनुमान करना 'काकुक्षिप्त गुणीभूत व्यंग' है। सोउ मन समुझि त्रास नहिँ मारे । लिखा बिरजि जरठ-मति-भारे । आन बीर बल सठ मम आगे। पुनि पुनि कहसि लाजपति-त्यागे ॥२॥ वह जान कर भी मेरे मन में बाल नहीं है, बुद्धि भ्रम से वृद्ध ब्रह्मा ने ऐसा लिखा। अरे मूर्ख ! मेरे सामने दूसरे योद्धा का पराक्रम तू लज्जा की मर्यादा छोड़ कर बार बार कहता है ? ॥२॥ रावण के कथन में गूढ़ ध्वनि है कि मैं जानता हूँ, पर जिद न छोडूंगा! तू बार बार व्यर्थ ही क्यों समझाता है। जब इस सम्बन्ध में ब्रह्मा की बात नहीं मानता हूँ तब दूसरे किसी का समझाना बिलकुल बेमतलब है। कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं । रावन ताहि समान कोउ नाही । लाजवन्त तक सहज सुमाऊ । निज-मुखनिजगुन कहसिनकाऊ॥३॥ अंगद ने कहा हे रावण ! तेरे समान लाजवाला संसार में कोई नहीं है । तेरी स्वामा• विक प्रकृति ही लजोधर है, इसी से अपना गुण तु अपने मुख से कुछ भी नहीं कहता ॥३॥ शब्द के उच्चारण में कराठध्वनि से कीकुद्वारा निर्लज्जता आदि' विपरीत अथ आसित होना लक्षणा-मूलक अगढ़ व्यंग है। सिर अरू सैल कथा चित रही। ता 6 बार बीस ते कही ॥ सो सूजबल राखेहु उर घाली । जीतेहु सहसबाहु-बलि-बाली ॥४॥ सिर काटने और पर्वत उठाने की कथा मन में थी, ( अपने जीवन में यही दो पुरुषार्थ तू ने किया है। इसी से तुमने चीसों बार उसे कहा । उन भुजाओं का बल हृदय में छिपा रखा . था, तभी सहस्रबाहु, बलि बार बाली ने तुम्हें जीत लिया! ॥४॥ हुन वाक्यों में वाच्यार्थ और व्यंगार्थ कारवर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यंग है अर्थात 3