पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५८

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stare" पष्ठ सोपान, उड्डाका अव भुजाओं में अप्रमेय बल था त सहनार्जुन, वलि और थाली ने कैसे जीत लिया ? चौपाई के उत्तरार्द्ध का दूसरा अर्थ यह भी किया जाता है कि सहस्र माहु, बलि और पाली को जीतने में उस भुजपल को हृदय में छिपा रखा था, उन्हें क्यों नहीं जीत लिया ? सुनु मति-मन्दु-देहि अब पूरा । काटे सीस कि होइयं सूरा ॥ इन्द्रजालि कह काहिय न बोरा । काट निज कर सकलं सरीरा ॥५॥ अरे नीच-बुद्धिचाला जीवात्मा ! सुन, अब इस से पूरा न पड़ेगा, क्या सिर काटने से तू शूर हो गया । इन्द्रजाल करनेवाला (बाजीगर ) अपने हाथों मारा शरीर काटता है, पर उसे कोई वीर नहीं कहता ॥ ५॥ क्या कोई सिर काटने से शर होता है । यह वक्रोक्कि है। इसका समर्थन विशेष उदाहरण से करना कि सार अङ्ग अपने हाथों काट डालने पर भी बाजीगर को कोई वीर नहीं कहता 'अर्थान्तरन्यास अतकार है। दो-जरहि पतङ्क माह बस, मार बहिँ खर-बन्द ॥ ते नहिँ सूर कहावहि, समुझि देखु मति-मन्द ॥२६॥ अरे मतिमन्द रावण समझ कर देख, फति अशान के अधीन हो कर जलते हैं और भुण्ड के झुण्ड गदहे बोझ ढोते हैं, वे शूरवीर नहीं कहलाते ॥ २६ ॥ चौल-अब जनि बतपढ़ाव खल करही। सुनु मम बचनमान परिहरही। दसमुख मैं नबसीठी आयउँ । अस बिचारि रघुबीर पठायउ ॥१॥ अरे दुष्ट ! अब वतबढ़ाव मत कर, मेरी बात सुन और अमिमान त्याग है। हे दशानन ! मैं दौतम के लिए नहीं पाया हूँ. रघुनाथजी ने यह सोच कर मुझे भेजा है ॥१॥ पहले सीठी के लिए आने से इनकार करना, फिर उसी बात को अन्य प्रकार से स्थापन फरना निषेधाक्षप भलंकार है। बार बार अस कहइ कृपाला । नहिँ गजारि जस बथे सृगाला । मन महँ समुझि बचन प्रक्षु केरे । सहेॐ कठोर बचन सठ तेरे ॥२॥ कृपालु रामचन्द्रजी बार बार ऐसा कहते हैं कि सियार को मारने से सिंह यशस्वी नहीं होता! अरे दुष्ट! मन में स्वामी के बचन समझ कर ही मैं ने तेरी कठोर बाते सहन की है ॥२॥ सिंह के सिर पर ढार कर यह बात रावण के प्रति कहना प्रस्तुत है और सिंह का वृत्तान्त प्रस्तुत है । यह साकस्य निवन्धना अप्रस्तुत प्रशंसा अथवा अन्योक्ति अलंकार है। नाहि त करि मुख-भजन तारा । लेइ जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥ जानेउँ तव बल अधम सुरारी । सूने हरि आनेसि पर-नारी ॥३॥ नहीं तो तेरा मुख तोड़ कर मैं जोरावरी से सीताजी को ले जाता । रे.नीच राक्षस ! तेरे पराक्रम को मैं जानता हूँ कि सूने में पराई स्त्री हर कर ले भाया है ॥३॥