पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९५९

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g शासवरित-सान। हैं निसिघर-पसि गर्ष बहूतो। मैं रघुपत्ति-सेवक-कर-दूता जौँ न राम अपमानहिं डरङ । ताहि देखत अस कातुक करॐ ॥४॥ ते राक्षसों का राजा है और मैं रघुनाथजी के लेवक (सुग्रीव) का दूत हैं। यदि मैं राम- चन्द्रजी के अपमान कोन डऊँ तो तेरे देखते ऐसा खेल कर डालूँ ten दो-ताहि-पटकि-महि सेन-हति, चौपट करि तव गाउँ तद जुबतीलह समेत सठ, जनकसुतहि लेइ जाउँ ॥३०॥ रे दुष्ट ! तुझे धरती पर पछाड़ कर फ़ौज का संहार कर, तेरी नगरी चौपट करके और तेरी सियों के सहित जनकनन्दिनी को ले जाता ॥३०॥ चौ०-जी अस करउँ तदपि न बड़ाई। सुयेहिषधे नहिँ कछु मनुसाई ॥ कौल काम- कृपिन बिमूढा । अति-दरिद्र अजसी अति-बूढा ॥१॥ यदि ऐसा करूँ तो भी बड़ाई नहीं है, सुर्दे को मारने में कुछ वहादुरी नहीं है । वाममार्गी, कामातुर, फजूस, महामूर्ख, यड़ा दरिद्री, कलङ्की और अत्यन्त बुड्ढा ॥६॥ सदा-रोग-इस सन्तत नोधी । बिष्नु-बिमुख सुति-सन्त-बिरोधी॥ तनु-पोषक निन्दक अध-खोनी । जीवत सव-सम चौदह'प्रानी ॥२॥ सदा क्षा रोगी, निरस्ता मोधी, ईश्वर निमुखी, वेद तथा सज्जनों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषनेवाला, दूसरे की निन्दा करनेवाला ये चौदहों प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान हैं ॥२॥ जीवित प्राणी को भिन्न भिन्न अवगुणों के योग से मृतक स्थापन करना अर्थात् मुर्दे के घरावर मानना 'सारोपा लक्षणा' है। अस जिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिक्ष उपजावसि माही। सुनि सकोप कह निखिचर-नाथा । अधर-दसन-दसि मीजत-हाथा ॥३॥ अरे दुष्ट'! ऐसा सोच कर तुझे नहीं मारता हूँ, पर अब मुझे क्रोध न उत्पन्न करावे । यह सुन कर क्रोध के वशीभूत हो राक्षसराज दाँतों से नोट दबाकर हाथ मलते हुए बोला ॥३॥ श्रगद का कठोर सम्माषण उहीपन विभाव है। रावण का ओठ चबाना, हाथ मलना, आँख तरेरना अनुभाव है। अमर्ष, नाग, उप्रतादि सचारी भावों द्वारा क्रोध स्थायीमाव पुष्ट हो कर 'रौद्र रत' संशा को प्राप्त हुआ है। रे कपि अधम भरन अब चहसी। छोटे बदन बात घड़ि कहसी ॥ कटु-जल्पसि जड़-कपि बल-जाके । बल प्रताप-बुधि-तेजन ताके ॥२॥ रे नीच बन्दर ! अब त मरना चाहता है, छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख वनौकस ! जिसके वत से तूकड़ी बाते. बकता है उसमें बल , प्रताप, बुद्धि और तेज कुछ भी नहीं है