पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६०

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पष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड ६५ । दो-अगुल अमान बिचारि तेहि, दीन्ह पिता बनबास । सो दुख अरु जुबत्ती बिरह, पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ उसको गुणहीन और प्रतिष्ठित जानकर उसके पिता ने वन-वास दे दिया। वह दुःख और स्त्री का वियोग, फिर रात दिन मेरी बास । गुटा में 'अगुन अमान बानि तेहि पाठ' है। जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि, ऐसे मनुज अनेक । खाहिँ निसाचर दिवस-निसि, मढ़ समुझा तजि टेक ॥३१॥ जिनके वल का तुझ को गर्व है, ऐसे अनगिनती मनुष्यों को दिन-रात राक्षस खाते हैं, अरे मूर्ख ह छोड़ कर ऐसा समझ ॥३१॥ रावण ने पूज्य पुरुष श्रीरामचन्द्रजी की अनुचित हैसी की है, यह हास्यरसाभास है। चौ०-जब तेहि कीन्ह राम कइ निन्दा। क्रोधवन्त अति भयउ कपिन्दा। हरि-हर निन्दा सुनइ जो काना । होइ पाप गो-घात-समाना ॥१॥ जब उसने रामचन्द्रजी की निन्दा की, तब युवराज अत्यन्त क्रोधित हुए । विरण और शिवजी को निन्दा जो फान से सुनता है, उसको गो हत्या के समान पाप होता है ॥१॥ कटकटान कपि-कुज्जर भारी । दुहुँ-सुज-दंड तमकि महि मारी। डोलत धरनि समारद खसे । चले भागि भय पालत असे ॥२॥ वानर श्रेष्ठ ने बड़े जोर से दाँत पोल क्रोध से उछल अपने दोनों भुजदण्डों को धरती पर दे मारा ! जिससे पृथ्वी हिल गई और सभासद् गिर गये, वे भय रूपी वायु प्रस्त हो भाग चले अथवा प्राव के अत्यन्त कुपित होने का डर और भुजबण्ड के पटकने से जो वायु निकली, दोनों में ग्रस्त हो भागे ॥२॥ गिरत. सँभारि उठा दलकन्धर । भूतल परे सुकुट अति सुन्दर कछु तेहि लै निज सिरन्हि संवारे । कछु अङ्गद प्रशु पास पबारे ॥३॥ रावण मी गिरते गिरते सम्हल कर उठा, पर उसके अत्यन्त सुन्द्र मुकुट धरती पर गिर पड़े। कुछ उसने लेकर अपने मस्तकों पर सजाया और कुछ अभय ने उठा कर प्रभु रामचन्द्र के पास फेंक दिया ॥ अशद ने दो हाथ से चार मुकुट उठाया और रावण योस हाथ से केवल छे उठा सक्षा, इसका कारण रावण की घबराहट है। आवत मुकुट देखि कपि भागे । दिनहीं लूक परन बिधि लागे । की रावन करि कोप चलाये। कुलिस चारि आवत अति धाये Men मुकुटों को आते देख कर वानर भगे, उन्हें भ्रम हुआ कि या विधाता ! दिन में ही उल्का. से