पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६१

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रामचरित मानस । 'पात होने लगा । या तो रावण ने क्रोध कर के चार बज़ चलाये हैं, जो बड़े वेग से दौड़े श्री रहे हैं ॥४॥ सुफूट को लूक और वन मान लेना भ्रान्ति है। लूक हैं या रावण के चलाये धन है, कोई बात निश्चय न हो कर संशय बना रहना सन्देह है। दोनों की संवृष्टि है। कह प्रभु हँसि जनि हृदय डेराहू । लूक न असनि केतु नहिँ गहू । ये कि दसकन्धर करे । आवत बालि-तनय के प्रेरे ॥५॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने हँस कर कहा-तुम लोग मन में मत डरी, ये न उस्का है, न वन, मोलु है और न राहु हैं। ये बालिकुमार के फेंके हुए रावण के किरीट पाते हैं ॥५॥ किरीटों को देख कर जो वानरों के मन में भ्रम और सन्देह हुआ, उसको सत्य कह कर निवारण करना 'मान्त्यापल ति अलंकार' है। दो-तकि पवन सुत कर गहेड, आनि घरे प्रक्षु प्रास । कौतुक देखहिँ भालु कपि, दिनकर-सरिस प्रकास ॥ पवनकुमार ने उछल कर हाथ से पकड़ लिया और प्रभु रामचन्द्रजी के पास ला कर रख दिशा (मुकुट) सूर्य के समान तेज युक्त हैं, भालू और वानर कुतूहल (आश्चर्य) से देख रहे हैं। उहाँ सकोप दशानन, सब सन कहत रिसाइ । घरहु कपिहि धरि मारहु, सुनि अङ्गद मुसुकाइ ॥३॥ वहाँ रावण क्रोधित हो सब से नाराज होकर कहता है कि इस वदर को पकड़ो और धर कर मार डालो, यह सुन कर श्रद मुस्कराते हैं ॥३२॥ श्रङ्गाद. के मुस्कुराने में रावण को धृष्टता और बेहयाईपन पर आश्चर्या प्रकाश करने का भाव है। चौ०-एहि बिधि बेगिसुभट सबधाबहु। खाहु भालु कपि जहँ जहें पावहु। मरकट-हीन करहु महि जाई । जियत धरहु तापस दाउ भाई॥१॥ रावण कहता है-इस तरह जल्दी सब राक्षस भट दौड़ो, जहाँ जहाँ भालू-मन्दरों को पाचो, उन्हें खा जाओ। जा कर पृथ्वी को बिना बन्दरों की कर दो और तपस्वी दोनों भाइयों को जीते ही पकड़ लो ॥१॥ पुनि सकप बालेउ जुवराजा । गाल बजावत. ताहि न लाजा ।। मरु गर काटि निलज कुलघाती। बलबिलेकि बिहरत नहि. छाती॥२॥ फिर युवराज क्रोधित हो कर बोले -रावण ! गाल बजाते हुए तुझे शरम नहीं है ? अरे निर्लज्ज, कुलनाशक ! गला काट कर मर जा, पराक्रम देख कर तेरी छाती नहीं फट आती?