पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६६

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षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भये बिसेखी ॥७॥ सब राक्षस अङ्गद की प्रतिज्ञा देख कर डर से अधिक घबरा गये ॥ दो०-रिपु-बल-घाणि हरषि कपि, बालि-तनय बल-पुञ्ज। पुलक-सरीर नयल जल, गहे राम-पद-कज्ज । बल के राशि वालिकुमार ने शत्रु के पराक्रम का अनादर कर के प्रसन्न हो पुलफित शरीर से नेत्रों में जल भरे हुए श्रा कर रामचन्द्रजी के चरण कमल पकड़े। अद का रोमाञ्चित होना, आँजों में जल भरना सात्विक अनुभाव है, जो स्वामी के चरण कमलों के दर्शन से उत्पन्न हुआ है। साँझ समय दसमौलि तब, भवन गयउ बिलखाइ । मन्दोदरी निसाचरहि, बहुरि कहा समुम्काइ ॥३॥ तय सन्ध्याताल में रावण उदास हो महल में गया । मन्दोदरी ने फिर राक्षलपति (रावण) को समझा कर कहा ॥३५॥ गुटका में 'मन्दोदरी राधनहि पाठ है इसमें एक मात्रा कम है। पं० रामवकस पाण्डेय की प्रति में 'मन्दोदरी अनेक विधि' पाठ है । ससा की प्रति का पाठ इस स्थल में ठीक है। चौ०-कन्त समुझि मन तजहु कुमतिही। सोहम समर तुम्हहिँ रघुपतिही। रामानुज लघु रेख रचाई । साउनहि नाँघेहु असि मनुसाई ॥१॥ है कन्त ! मन में समझ कर दुर्बुद्धि त्याग दो, तुम से और रघुनाथभी से युद्ध नहीं सोहता । रामचन्द्र के छोटे भाई ने ज़रा सी लकीर खींच दी, तुम्हारी बहादुरी तो ऐसी है कि वह भी नहीं लाँध सः॥१॥ मन्दोदरी ने पहले कहा-तुम से और रघुनाथजी से समर नहीं शोभा देता अर्थात् तुम उनसे युद्ध करने में समर्थ नहीं हो, इसका समर्थन विशेष सिद्धान्त से करना कि लक्ष्मण की खंचाई रेखा नहीं लाँध सके 'श्रर्थान्तरन्यास अलंकार' है। पिय तुम्ह ताहि जितब सट्टामा । जाके दूत केर अस कामा । कौतुक सिन्धु नाँघि तब लङ्का । आयउ कपि-केहरी असङ्का ॥२॥ हे प्यारे! श्राप उनको लड़ाई में जीतेंगे ? जिनके दूत का ऐसा काम है। खेल ही में समुद्र लाँध कर तुम्हारी लङ्का में वह वानर-सिंह 'निर्भय बुस आया ॥२॥ दूत के भीमकार्य से स्वामी के न जीत सकने का अर्थ स्थापन करना 'अर्धापत्ति • प्रमाण अलंकार' है। रखवारे हति विपिन उजारा । देखत ताहि अच्छ तेहि मारा । जारि नगर सब कीन्हेसि छारा । कहाँ रहा बल-ग तुम्हारा ॥३॥ रक्षकों को मार कर बगीचा उजाड़ डाला और तुम्हारे देखते उसने अक्षयकुमार को ५