पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६८

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६६३ . भष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । सभा माँझ जेहि तव बल मथा । करि-बरूथ-सहँ मृगपति जथा ॥ अङ्गद हनुमत • अनुक्षर जा के । रनबाँकुरे बीर अति-बाँके ॥२॥ जिसने सभा के बीच में तुम्हारे बल को इस तरह चूर किया, जैसे हाथियों के झुण्ड में सिंह (दप चूर्ण करता है)। अत्यन्त घाँके, रणवाँकुरे अङ्गद और हनूमान जिनके सेवक हैं ॥२॥ तेहि कह पिय पुनि पुलि नर कहहू । सुधा मान ममता मद बहहू ॥ अहह कन्त कृत राम बिरोधा। कालबिबस मन उपज न बोधा॥३॥ प्रीतम ! उनको बार बार मनुष्य कहते हो, मिथ्या अभिमान, मोह और मतवालेपन में बह रहे हो । रुन्त ! शोक है कि रामचन्द्रजी ले बैर किये हुए कोल के अधीन हो गये हो, इसी से हारे मन में शान नहीं उत्पन्न होता है ॥३॥ काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ बुद्धि बल धरम बिचारा ॥ निकट काल जेहि आवत साँई । तेहि भन्न होइ तुम्हारिहि नाँई ॥४॥ काल लाठी ले कर किसी को नहीं मारता, वह बुद्धि, बल, धर्म और विचार को हर लेता है। स्वामिन् ! जिसका काल समीप नाता है, उसको श्रापही की तरह भ्रम होता है ॥४॥ दो०-दुइ सुत मारेउ दहेउ पुर, अजहुँ पूर पिय देहु । कृपासिन्धु रघुनाथ अजि, नाथ बिमल जस लेहु ॥३०॥ यो पुन मारे गये और नगर जलाया गया. शव भी कुशल है उनकी प्यारी (सीता) को दे डाली। हे नाथ ! कृपासिन्धु रधुनाथजी का भजन कर के निर्मल यश प्राप्त करो ॥३॥ चौ०-नारिबचन सुनि बिसिख समाना । समा गयउ उठि होत बिहाना । बैठ जाइ सिंहासन फूली । अति-अभिमान त्रास सब भूली॥१॥ स्त्री के वचन सुन कर वे बाण के समान लूगे, सवेरा होते ही उठ कर सभा में गया। अत्यन्त अमिमान से फूल कर सिंहासन पर जा बैठा और सारी डर भूल गई ॥१॥ पूर्व में मन्दोदरी के समझाने पर कुछ न कुछ टेढ़ी सीधी बाते कह कर शान्त्वना देता था, परन्तु इस बार भय से कुछ बोल नहीं साघमण्ड के सहित राज्यासन पर बैठते ही वह डर भूल गई। इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा । आइ चरन-पङ्कज सिर नागा ॥ अति-आदर समीप बैठारी । बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥२॥ यहाँ रामचन्द्रजी ने अंगद को बुलवाया, उन्हों ने प्राकर चरणों में सिर नवाया। . खर के बेरी कृपालु स्वामी ने अत्यन्त आदर से समीप में बैठाया और मुस्कुराते हुए बोले ॥२॥ बालितनय आंत कौतुक माही। तात सत्य कहु पूछउँ ताही । रावन-जातुधान-कुल-टीका । झुज-बल-अतुल जासु जग लीका ॥३॥ हे शालिनन्दन तात ! मुझे बड़ा आश्चर्य है इससे तुमसे पूछता हूँ, सच कहो । रावण राक्षसवंश का शिरोमणि है, जिसकी भुजाओं के अतोल बल का संसार मै थाप है ॥३॥