पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७०

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षष्ठ सोपान, लढाकाण्ड । een स्मरण करके उन्हों ने विचार कर मत निश्चय किया, बानरों के दल की चार सेनाएँ बनाई॥२॥ जथाजोग सेनापति कीन्हे । जूथप सकल बोलि तम लीन्हे ॥ प्रभु प्रताप कहि सब समुझाये । सुनि कपि सिंहनाद करि धाये ॥३॥ यथायोग्य सेनापति नियत किये, तब समस्त यूथपतियों को बुला लिया। सब को प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप कह कर समझाया, सुन कर बन्दर सिंह के समान गर्जना कर के दौड़े ॥३॥ हरषित राम-चरन सिर नावहिं। गहि-गिरि-खिखर बीर सब धावहिं। गर्जहिँ तर्जहिँ भालु कपीला । जय रघुबीर रघुबीर कोसलाधीसा ॥४॥ प्रसज रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाते हैं और सब योद्धा पर्वत के शिखर हाथ में लेकर दौड़े जाते हैं । मालू और धन्दर गरजते, डाँटते तथा कोशलेन्द्र रघुवीर की जय जय. कार करते हैं जानत परम दुर्ग अति लङ्का । प्रभु प्रताप कपि चलेउ असङ्का ॥ घटाटोप करि चहुँदिसि धेरी। मुखहि निसान बजावहिँ मेरी ॥५॥ लक्षा को बहुत ही हद से ज्यादा दुर्गम जानते हुए प्रभु रामचन्द्रजी के प्रताप से वन्दर निर्भय उसकी ओर चले । घटाटोप कर के (कासा नगरी) चारों ओर से घेर लिया, मुखही के डके और नगाड़े बजा रहे हैं ॥५॥ घटाटोप बादलों की घटा जो चारों ओर से घेरे हो अथवा बादलों के समान चारों ओर से घेर लेनेवाला दल वा.समूह । दो०-जयति राम जय लछिमन, जय कपीस सुग्रीव । गहिँ केहरिनाद कपि, भालु महाबल सीव ॥३९॥ रामचन्द्र की जय, लक्ष्मण की जय, सुप्रीव की जय बोलते महाबल के सीम यन्दर और भालू सिंह के समान शब्द कर गरजते हैं ॥३॥ युद्ध के लिए शूरता के कारण वानर-माल वीरों के वित्त में जो चांच बढ़ना वर्णिन है यह उत्साह स्थायीभाव है। रामचन्द्रजी के चरणों में प्रणाम कर पत्थर ले कर दौड़ना, गर्जना, डपटना, भेरी आदि बजाना अनुभाव है। चौ०-लङ्का भयउ कोलाहल भारी । सुना दसानन अति अहँकारी। देखहु मनरनह केरि ढिठाई । बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥१॥ लङ्का में बड़ा हल्ला झा, उसे अत्यन्त अहारी रावण ने सुना। उसने आश्चर्य से कहा-बन्दरों की ढिठाई देखो, फिर हँस कर राक्षसी फौज को बुलवाया ॥१॥