पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७३

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. GOS रामचरित मानस । चौ० राम-प्रताप-प्रबल कपि-जूथा । मर्दहिँ निसिचर-निकर-बरूया ॥ चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तह बानर । जय रघुबीर प्रताप-दिवाकर ॥१॥ रामचन्द्रजी के प्रताप से अत्यन्त बली वानर-इन्द राक्षत समूह की सेना का संहार करते हैं। फिर सूर्य के समान प्रतापवान रघुनाथजी की जय जयकार करते हुए बन्दर जहाँ तहाँ किले पर चढ़ गये ॥१॥ चले निसासर-निकर पराई । प्रबलपवन जिमि धन समुदाई ॥ हाहाकार भयउ पुर भारी । रोवहिँ बालक आतुर नारी ॥२॥ राक्षसगण ऐसे भाग चले जैसे प्रचण्ड हवा से बादलों का समूह फट जाता है। नगर बड़ा हाहाकार मच गया, लड़के और स्त्रियाँ दुःखित होकर रुदन करती हैं ॥ २ ॥ सब मिलि देहि राजनहिँ मारी। राज करत एहि मृत्यु हँकारी ॥ निजदल बिचल सुना तेहि काना । फेरि सुमट लङ्केस: रिसाना ॥३॥ सब मिल कर रावण को गाली देते हैं और कहते हैं कि राज करते हुए इसने मृत्यु बुलाई है । अपनी लेना का विचलित होना कान से सुन कर लङ्कापति-रावण क्रुद्ध हो योद्धाओं को फेरा ॥३॥ जो रन-भिमुख फिरा मैं जाना । सा मैं हतब कराल कृपाना । सरबस ‘खाइ भांग करि नाना । समर-भूमि भये बल्लभ प्राना ॥४॥ जो युद्धले मुँह फेरेगा, यह मैं. जानॅगा उसको मैं भीषण तलवार से मार डालूँगा। सर्वस्व खा कर तरह तरह के भोग-विलास कर के संग्राम-भूमि में प्राण प्यारा हो रहा है ॥४॥ सभा की प्रति में 'दुर्लभ पाठ है। उन बचन सुनि सकल डेराने । फिरे क्रोध करि बीर लजाने ॥ सनमुख मन धीर के सोला । तब तिन्ह तजा प्रान कर लेोभा ॥५ टेढ़ी बात सुन कर सब डरे शूरवीर लजो गए और क्रोध कर के लौट पड़े। उन्हों ने सोचा कि सामने लड़कर मरना वीरों के लिए शोमा है, तव राक्षसों ने प्राण का लोभ त्याग दिया ॥ ५॥ तुल्यप्रधान गुणीभूत व्या है कि भागने से रावण मार डालेगा, तब वीरोचित कार्य कर युद्ध में ही प्राण गँवाना चाहिए । दो-बहु-आयुध-धर सुभट सब, भिरहिं प्रचारि प्रचारि । व्याकुल कीन्हे भालु-कपि, परिघ त्रिसूलन्हि मारि ॥४२ बहुत से हथियार लिये हुए सब योद्धा राक्षस ललकार ललकार कर भिड़ते हैं। परिष (लोहदण्ड ) और निशूला से मार मार कर वानर भालु मों को व्याकुल कर दिये ॥ ४२ ॥ 3 .