पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७४

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कहाँ हैं ॥१॥ सामनाथा॥२॥ षष्ठ सापान, लङ्काकाण्ड । चौ०-भय आतुर कपि मागन लागे। जयपि उमा जोतिहहिं आगे ॥ कोउ कह कहँ अङ्गद हनुमन्ता । कहँ नलनील दुबिद बलवन्ता ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा! यद्यपि बन्दर श्रागे जीतेंगे, तो भी डर से अधीर हो भागने लगे। कोई कहता है। श्रद कहाँ हैं ? बलवान हनूमान, नल, नील और विविद निजदल बिचल सुना हनुमाना । पच्छिम द्वार. रहा बलवाना । मेघनाद तहँ कर लराई । टूट न द्वार परम कठिनाई ॥२॥ चलवान हनूमानजी पश्चिम के द्रवाजे पर थे, उन्हो ने अपनी सेना के विचलने का हाल सुना। वहाँ मेघनाद युद्ध करता था, दरवाजा टूटता नहीं; बड़ी कठिनाई का पवन तनय मन मा अति क्रोधा । गजेउप्रबल-काल-सम जोधा। कूदि लक-गढ़ ऊपर आवा । गहि गिरि मेघनाद कहें धावा ॥३॥ योद्धा पवनकुमार के मन में बड़ा क्रोध हुआ, वे अत्यन्त वली काल के समान गर्ने। उछल कर लङ्का-गढ़ के ऊपर आये और पर्वत हाथ में ले कर मेघनाद की ओर दौड़े ॥३॥ भज्जेउ-रथ सारथी-निपाता । ताहि हृदय महँ मारेसि लातो। दुसरे सूत बिकल तेहि जोना । स्यन्दन घालि तुरत गृह आना ॥४॥ स्थ तोड़ कर सारथी का नाश किया और उसकी छाती में लात मारा। दूसरे सारथी ने मेघनाद को व्याकुल जान रथ में डाल कर तुरन्त घर ले आया ॥४॥ दोष-अङ्गद सुनेउ कि पवन-कुत, गढ़ पर गयउ अकेल । समरबाँकुरा बालि-सुत, तरकि बढ़ेउ कपि-खेल ॥४३॥ अङ्गद ने सुना कि किले पर अकेले ही पवनकुमार गये हैं। रणबाँके पालिनन्दन वानरी खेल से कूद कर चढ़ गये ॥४३॥ चौ०-जुद्ध-बिरुद्ध क्रुद्धदोउ बन्दर । राम-प्रताप सुमिरि उर-अन्तर ॥ रावन-भवन चढ़े दोउ घाई। करहिं कोसलाधोल दोहाई ॥१॥ दोनों बन्दर युद्ध में भीषण क्रोध कर रामचन्द्रजी के प्रताप को हदय में स्मरण कर के दोनों दौड़ते हुए रावण के महल पर बढ़ गये और कोशलेन्द्र रामचन्द्रजी की दुहाई दे कलस सहित गहि भवन ढहावा । देखि निसाचर-पति मय पावा । नारि-वृन्द कर पीटहिँ छाती । अब दुइ कपि आये उत्तपाती ॥२॥ घरों को फलशों के सहित पकड़ कर गिरा दिया यह देख कर राषण भयभीत 'हुश्री। लियाँ हाथों से छाती पीटती और कहती हैं कि अब ये दोनों धन्दर उपद्रवी आये हैं ॥ २॥