पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७५

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भुज-बल-भारी। 1 . $ 400 रामचरित मानस । कपि-लीला करि तिन्हहिँ उरावहि । रामचन्द्र कर सुजस सुनावहिँ । पुनि कर गहि कजन के खम्ला । कहेन्हि करिय उतपात अरम्भा ॥३॥ वानरी लीला कर के उन्हें डराते हैं और रामचन्द्रजी का सुयश सुनाते हैं। फिर सुवर्ण के खम्भे हाथों में ले कर बोले कि अब उत्पात करना चाहिए ॥३॥ गर्जि परे रिपु-कटक अझारी । लागे मर्द काहुहि लात चपेटन्हि केहू । अजहु ल रामहि सो फल लेहू un गर्जना करके शव दल में कूद पड़े और भुजाओं के भारी बल से राक्षसों का संहार करने लगे। किलो को लात से और किसी को थप्पड़े से मार कर कहते हैं कि रामचन्द्रजी को नहीं भजते, उसका फल लेनो॥४॥ दो-एक एक खाँ बर्दही, तारि चलावहिँ मुंड । रावन आगे पहँ ते, जनु फूटहि दधि-कुड ॥४४॥ एक को पकड़ कर दूसरे से रगड़ देते हैं और उनके सिर तोड़ कर फेकते हैं। वे रावण के सामने गिर कर ऐले फूटते हैं मानों दही के कुण्डे हो॥४४॥ दही के कुंडे गिरने पर अनायास फूटते ही हैं, यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। चौ०-महामहा मुखिया जे पावहिं । ते पद गहि प्रक्षु पास चलावहि । कहहिं बिभीषन तिन्हके लामा । देहि राम तिन्हहूँ निजधामा ॥१॥ जो बड़े बड़े मुखियों को पाते हैं, उनके पाँव पकड़ कर प्रभु रामचन्द्रजी के पास पधारते हैं। विभीषण उनके नाम कहते हैं, रामचन्द्रजी उनको भी अपना धाम (वैकुण्ठ निवास) देते हैं ॥१॥ खल मनुजाद द्विजालिप-योगी। पावहिं गति जो जाँचत जोगी। उमा रास मृदु-चिस करुनाकर । बैर-भाव सुमिरत ओहि निसिचर ॥२॥ दुष्ट, मनुष्य-भोजी, ब्राह्मणों के मांस के खानेवाले राक्षस वह पति पाते हैं जिसे योगी लोग माँगते हैं । शिवजी कहते हैं-हे उमा ! रामचन्द्रजी का चित्त कोमल और दयामय है, वे यह समझाते हैं कि राक्षस मुझे शत्रु भाव से स्मरण करते हैं ॥२॥ देहि परम-गति सो जिय जानी। अस कृपालु को भवानी॥ अस प्रभु सुनि न अहिँ भ्रम त्यागी। नर मति-मन्द ते परम अभागी॥३॥ शङ्करजी कहते हैं-हे भवानी ! यह मन में विचार कर उन राक्षसों को श्रेष्ठगति देते हैं, भला कहाँ ! ऐसा दयालु कौन है ? ऐसी दयालुता स्वामी की सुन कर भी जो मिथ्या भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे नीच-बुद्धि और बड़े अभागे मनुष्य हैं ॥३॥ $