पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७६

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. षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । ६०१ अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा । कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥ लङ्का दोउ कपि साहहिँ कैसे । मयहिँ सिन्धु दुइ सन्दर जैसे uen अवधेश रामचंद्रजी ने ऐसा कहा कि लंका गढ़ में अङ्गद और हनुमान ने प्रवेश किया है। दोनों धन्दर तक्षा में कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे दो मन्दराचात समुद्र को मथते हे Men दो-भुज बल रिपु-दल दलमलि, देखि दिवस कर अन्त । कूद जुगल बिगत-सम, आये जहँ भगवन्त ॥४५॥ भुजाओं के बलसे शत्रु को सेना का मर्दन कर के दिन का अन्त देख दोनों वीर विना प्रयास ही उछले और जहाँ भगवान रामचन्द्रजी है, वहाँ माये ॥in यहाँ शङ्का की जाती है कि दोनों योद्धाओं ने दिन भर घोर श्रम किया पर थकावट नहीं हुई। उत्तर-ऐसी शकाएं निरर्थक हैं वोमी समाधान इस तरह होता है कि भगवान के दर्शन करते ही श्रम जाताहा इससे विगत-श्रम हुए। परन्तु यह बात नीचे की चौपाई में कही गई है, प्रथम अर्थ ठीक है। चौ०-प्रभु-पद-काल सील तिन्ह लाये । देखि सुभट रघुपति मन माये ॥ राम कृपा करि जुगल निहारे । भये जिगस-खम परम-पुखारे ॥१॥ उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में मस्तक नवाये, योद्धाओं को देख कर रघुनाथजी मन में प्रसन्न हुए । रामचन्द्रजी ने दोनों वीरों को कृपा-दृष्टि से देखा, उनकी थकावट दूर हो गई और अतिशय आनन्दित हुए ॥१॥ गये जालि अङ्गद हनुमाना फिरे लालु मर्कट अट नाना॥ जातुधार प्रदोष बल पाई। धाये करि दससीस-दोहाई ॥२॥ अंगद और हनूमामजी ले गया हुआ जान कर अनेक भालू-बन्दर योद्धा फिरे । राक्षस सायङ्काल अँधेरे) को चल पा कर रावण की दुहाई राक्षस धानरों को परास्त करना चाहते हो थे, अन्धकार के योग से वह कार्य उन्है 'अकस्मात् सुगम हो गया 'समाधि अलंकार' है । सन्ध्या को दो घड़ी दिन से दो घड़ी रात 'तक प्रदेोष-काल कहलाता है, इसमें राक्षसों का बल बढ़ता है। निसिचर-अनी देखि कपि फिरे । जहँ वह कटकदाई मट-मिरे । दोउ दल प्रबल मचारि प्रचारी । लरत सुभट नहिँ मानहिँ हारी ॥३॥ राक्षसी सेना को देखकर बन्दर लौट पड़े और जहाँ तहाँ कटकटा कर योद्धाओं से मिड गये। दोनों दलों के बलवान योद्धा ललकार ललकार लड़ते हुए हार नहीं मानते हैं ॥३॥ महाबीर निखिचर सब कारे । नाना बरन बलीमुख भोरे॥ सबल जुगल दल सम-बल-जोधा । कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥ सब राक्षस बड़े वीर और काले हैं, नाना रह के भारी बन्दर हैं। दोनों दलों के योद्धा बलवान और समान परामवाले हैं, वे कोध कर लड़ते हुए युद्ध में कुतूहल करते हैं ॥४॥ FRII