पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९७७

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६०२ रामचरितमानस प्राबिट-सरद-पयोद घनेरे । लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे अनिप अकस्पन अरू अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥५॥ मानों वर्षाऋतु के (काले काले) और शरदऋतु के (लाल पोले)बहुत से बादल हवा के झोंके से लड़ते हों। राक्षसों के सेनापति अकम्पन और अतिकाय ने अपनी फ़ौज को लड़. खड़ाते देख कर उन्हों ने छल किया ॥५॥ राक्षसी दल और काले बादल, वानरों की सेना और पीले लाल मेघ एवम् अपने अपने स्वामियों की विजयाकांक्षा तथा पवन उपमेय उपमान है। वर्षा और शरदकाल के बादल कभी लड़ते नहीं, केवल कवि की उपज है, यह 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। भयउ निमिष महँ अति अँधियारा । वृष्टि होइ रुधिरोपल-छारा ॥६॥ क्षणमात्र में अत्यन्त अँधेरा हो गया, रक्त, पत्थर और राख की वर्षा हो रही है ॥६॥ दो०-देखि निजिड़ तम दसहुँ दिलि, कपि दल भयउ खभार। एकहि एक न देखहीं, जहँ तहँ करहिं पुकार ॥४६॥ दसों दिशाओं में घोर अन्धकार देख कर धानरों की सेना में घबराहट हुई । एक दूसरे को नहीं देखते हैं, जहाँ वहाँ से पुकार रहे हैं ॥३६॥ चौ०-सकल मरम रघुनायक जाना । लिये बोलि अङ्गद हनुमाना । समाचार सब कहि सलुझाये । सुनत कोपि-कपि-कुञ्जर धाये ॥१॥ सारा भेद रघुनाथजी ने जान लियो, तब अङ्गद और हनूमानजी को बुला कर सब समाचार कह कर समझाया, सुनते ही वानर श्रेष्ठ क्रोधित हो दौड़े ॥१॥ पुनि कृपाल हँखि चाप चढ़ावा । पावक-सायक सपदि चलावा ॥ अयउ प्रकास कतहुँ लम नाहीं । ज्ञान उदय जिमि संसय जाही ॥२॥ फिर कृपालु रामचन्द्रजी ने हंस कर धनुष चढ़ाया और तुरन्त अग्नि-बाण चलाया। प्रकाश हो गया कहीं अन्धकार नहीं रहा, जैसे शान के उदय होने पर सन्देह दूर हो जाता है ॥२॥ भालु-अलीमुख पाइ प्रकाला। धाये हरषि बिगत-खम-त्रासा ॥ हनुमान अङ्गद रन गाजे । हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥३॥ भालू और बन्दर प्रकाश पाकर थकावट तथा भय रहित प्रसन्न हो दौड़े। हनूमान और अङ्गद रणागन में गर्जे, उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग चले ॥३॥ भागत भट पटकहिँ धरि धरनी। करहि भालु-कपि अदभत-करनी ॥ गहि पद डारहिँ सागर माहौँ । मकर-उरग-झष धरि धरि खाहीं ॥४॥ भागते हुए राक्षस वीरों को पकड़ कर धरती पर पटक देते हैं, भालू और वानर भगत