पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८४

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९०६ षष्ठ सोपान, लब्बाकाण्ड । एकहि एक सकहिं नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती। क्रोधवन्त तब भयउ अनन्ता । अलेउ रथ सारथी तुरन्ता ॥२॥ एक दूसरे को जीत नहीं सकते हैं, राक्षस छन के पल से अनीति (अधमर्मयुद्ध) करता है । तब लक्ष्मणजी क्रोधित हुए, तुरन्त उसके रथ को चूर चूर कर के सारथी को मार 'डाला ॥२॥ नाना विधि प्रहार कर सेषा । राउछस अयउ मान अवसेषा । रावन-सुत निज-सन अनुमाना । सङ्कट भयउ हरिहि मम माना ॥३॥ अनेक प्रकार से लक्ष्मणजी चोट पहुंचा रहे हैं, राक्षस प्राणावशेष हो गया। मेघनाद ने अपने मन में अनुमान किया कि मुझे सङ्कट धुश्रा, यह मेरा प्राण हर लेगा ॥३॥ बीरघातिनी छाड़ेखि साँगी । तेज-पुञ्ज लछिमन उर लागी । मुरछा भई सक्ति के लागे । तब बलि गयउ निकट भय त्यागे ॥४॥ शूरों को हनन करनेवाती साँगी उसने छोड़ी, वह तेज की राशि लक्ष्मणजी की छाती में लगी। शक्ति के लगते ही भूर्छित हो गये, तब डर छोड़ कर मेघनाद समीप में चला गया ॥४॥ सेल का छोड़ना काररा, नेहोश होना कार्या, दोनों एक साथ ही होना 'श्रकमातिशयोक्ति अलंकार' है। दो०-मेघनाद सम कोटिलत, जोधा रहे उठाय । जगदाधार अनन्त किमि, उठाइ चले खिसियाइ ॥४॥ मेघनाद से समान असंख्यो योद्धा उठा रहे हैं । जगत के आधार शेष भगवान कैसे उठ सकते हैं? सब लजाकर लौट चले ॥४॥ चौ०-सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू । जार भुवन चारि दस आसू ॥ सक सङ्काम जीति को ताही । खेवहिँ सुर नर अग जग जाही॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे गिरजा ! सुनो, जिनकी कोधाग्नि चौदहों लोकों को तुरन्त भस्म कर देती है । उनको युद्ध में कौन जीत सकता है जिनकी सेवा देवता, मनुष्य, स्थावर और जंगम सभी करते है॥१॥ जिनकी क्रोधाग्नि चादहों लोकों को जलाती है, इसमें शूरत्व और महिमा की अत्युक्ति है। उन्हें संग्राम में कौन जीत सकता है ? अर्थात् कोई नहीं; चकोक्ति है। न जीत सकने का समर्थन अनोखी युक्ति से करना कि जिनकी सेवा सुर नर अग जग करते हैं, काव्यलिंग है। पराजित होना.प्रसिद्ध वस्तु का निषेध करना प्रतिषेध है । इस तरह यहाँ कई एक अलं. '. कारों का सन्देहसार है। यह कौतूहल जानइ लाई । जा पर कृपा राम के हाई ॥ सन्ध्या भई फिरी दोउ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी ॥२॥ इस रहस्यपूर्ण क्रीड़ा को वही जान सकता है जिस पर रामचन्द्रजी की कृपा होती है।