पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८८

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लॉर षष्ठ सापान, लङ्काकाण्ड । अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं ॥ कह कपि मुनि गुरुदछिना लेहू। पाछे हमहिँ मन्त्र तुम्ह देहू ॥२॥ ऐसा फाइ कर जब वह अप्सरा वली गई, तप हनूमानजी राक्षस के पास गये। उन्हों ने कहा- हे मुनि ! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए. फिर तुम हमें मन्त्र पीछे देना ॥२॥ मन्त्रोपदेश कारण है और गुरुदक्षिणा कार्य है। यहाँ कारण के पहले कार्य का प्रकट होना 'अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकार' है। सिर र लपेटि पछारा । निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥ राम राम कहि छाड़ेसि पाना । सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥३॥ अपनी पूंछ से उसका सिर लपेट कर पटक दिया, मरती वेर उसने अपना राक्षसी शरीर प्रकट किया । राम राम कह कर प्राण त्यागा, यह सुन कर मन में प्रसा हो हनूमानजी चल दिये ॥३॥ देखा सैल न औषध चीन्हा । सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा । गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ । अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ ॥४॥ पर्वत को देखा परन्तु बूटी पहचान में न आई, तब हनूमानजी ने जल्दी से उस पहाड़ ही को उखाड़ लिया। पवत को हाथ में लिए हुए रात्रि को आकाश-मार्ग से दौड़े और अयोध्यापुरी के अपर गये ॥४॥ हनूमागजी का निराधार अाकाश में दौड़ना 'प्रथम विशेष अलंकार' है। दो०-देखा भरत बिसाल अति, निसिचर मन अनुमानि । बिनु फर सायक लोरेउ, चाप खवन लगि तानि ॥५॥ भरतजी ने देखा और मन में विचारा कि यह बहुत बड़ा राक्षस पा रहा है। कान धनुष तान कर विना फर का बाण मारा ॥ ५ ॥ बन्दर को भ्रम से राक्षस अनुमान कर लेना 'भ्रान्ति अलंकार' है। हनुमनाटक में लिखा है कि उस समय भरतजी शान्तिमण्डप में दुःस्वप्न की शान्ति के लिए हवन करते थे, तब हनूमानजी को देखा । राक्षस का अनुमान हुआ, पर ऐसी दशा में हिंसा उचित न थी, इसी से बिना फर का बाण मारा। चौ०-परेउ सुरुछि महि लागत सायका सुमिरत राम राम रघुनायक सुनिप्रिय बंचन भरत उठिधाये। कपि समीपअतिआतुर आये ॥१॥ घाण लगते ही राम राम रघुनायक स्मरण कर मूर्छित हो धरती पर गिर पड़े। यह प्रिय वचन सुनते ही भरतजी उठ कर दौड़े और बहुत जल्दी चन्दर के पास आये ॥ १॥ विनाफर के घाण से हनूमानजी जैसे योद्धा का मूर्छित हो जाना 'द्वितीय विभावना अलंकार है। } ११५