पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८९

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रामचरित-सानस। यहाँ शक्षा होती है कि अयोध्यापुरी बारह योजन में बसी थी और पर्वत सोलह योजन का था। यदि वह भूमि पर गिरता तो नगर चौपट हो जाता, फिर पर्वत कहाँ रहा? उत्तर-गीमावली में गोसाँईजी ने लिखा है 'परेउ कहि राम पवन रायोउ गिरि, पुर तेहि तेज पिया है अर्थात् पुत्र के बचाव के लिए पवनदेव ने द्रोणाचल को आकाश ही में रोक लिया, वह भूमि पर नहीं गिरा। बिकल बिलोकि कीस उर लावा । जागत नहिँ बहु भाँति जगावा ॥ मुख मलीन मन अये दुखारो। कहत बचन लोचन भरि बारी ॥२॥ कपि को व्याकुल देख कर छाती से लगा लिया और पाहत तरह से जगाने लगे, वे होश में नहीं आये। तब भरतजी का मुरा मलिन हो गया, मन में दुखी हुए और प्रास्त्रों में आँसू भरकर बोले ॥२॥ जेहि बिधि राम-विमुख सोहि कीन्हा। तेहि पुनि यह दारुन दुख दीन्हा। जाँ सारे सन बच अरु काया । प्रीति राम-पद-कमल अमाया ॥३॥ जिस विधाता ने सुझे रामचन्द्रजी से विमुख किया है, उसी ने फिर यह दारुण' दुःख दिया है । यदि मन, वचन और कर्म ले रामचन्द्रजी के चरण-कमलों में मेरी निश्छल प्रीति हो ॥३॥ तो कपि होउ बिगत सम-सूला । जौँ मा पर रघुपति-अनुकूला ॥ सुनत बचन उठि बैठ कपीसा । कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥४॥ यदि रघुनाथजी मुझ पर अनुकूल हो तो बन्दर थकावट और पीड़ा से रहित होवे। ऐसा वचन सुनते ही हनूमानजी कोशलेन्द्र भगवान की जय जयकार कर उठ बैठे ॥ ४॥ सो०-लीन्ह कपिहि उर लाइ, पुलकित तनु लोचन सजल । प्रीति न हृदय समाइ, सुमिरि राम-रघुकुल- -तिलक ॥५॥ हनूमानजी को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल . भर आया। रघुपुाल के भूषणं रामचन्द्रजी का स्मरण कर हदय में इतनी प्रीति उमड़ी कि व. समाती नहीं है। 48॥ चौ-तात कुसल कहु सुखनिधानको । सहित अनुज अरु मातु-जानकी॥ कॉप सब चरित समास बखाने । अये दुखी मन महँ पछिताने ॥१॥ हे तात ! सुख के स्थान रामचन्द्रजी छोटे भाई और माता जानकीजी के सहित कहो कुशल-पूर्वक हैं ? हनूमानजी ने सब समाचार संक्षेप में कह सुनाया, सुन कर दुखी हुए और मन में पछताने लगे ॥१॥ अहह दैव मैं कत जग जायउँ. । के जालि कुअवसर मन धरि धीरा । पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥२॥ हाँ ईश्वर ! मैं संसार में काहे को पैदा हुआ, जब कि स्वामी के पक भी काम न आया। एकहु काज न आयउँ॥