पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९२

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षष्ठ सोपान, लडाकाण्ड २१७ दुखी रहता है । हे भाई । यदि सूर्ख विधातामुझे जिलावेगा तो तुम्हारे बिना मेरा जीना ऐसा ही (दुख मय) होगा ॥५॥ जैहउँ अवध कवन ह लाई । नादि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥ बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाही ॥ मैं अयोध्या में कौन मुँह लेकर जाऊँगा कि स्त्री के कारण प्यारे भाई को खो दिया। बल्कि संसार में इस अपकीर्ति को सह लेता, (इल हानि के समक्ष ) स्त्री की हानि कुछ अधिक हानि नहीं है ॥६ अब अपलोक सेोक सुत तारा । सहिहि निठुर कठोर उर मेरा ॥ निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह माले अधारा १७६ , 'हे पुत्र ! अब यह लोकनिन्द्रा और तुम्हारा शोक मेरा निर्दय कठिन हृदय सहन करेगा। अपनी माता के तुम एक ही पुत्र हो, हे तात ! उसके तुम प्राणों के अधार हो॥७॥ लक्ष्मण और शत्रुहन दो पुत्र सुमिनाजी के हैं, पर रामचन्द्रजी अकेले लक्ष्मणजी को थयों कहते हैं ? उत्तर-यह कथन भी वैसा ही है जिसका ठीक उच्चर नहीं हो सकता, किन्तु, विद्वज्जनों से जो सुनने में आया है वह लिखता हूँ। 'पका संख्या वाचक है और एकोन्ये प्रधाने-इत्यमर' प्रधान का भी योधक है। कहते हैं अपनी माता के तुम प्रधान पुन हो । इसका कारण पुत्रवती जुक्ती जग सोई रघुवर भगत जासु सुत होई' है। सौंपेसिमाहि तुम्हहि माहि पानी । सब विधि सुखद परमहित जानी ॥ उतरु काह देहउँ तेहि जाई । उठि किन माहि सिखावह भाई ८० उसने मुझे सब प्रकार सुख देनेवाला और परम हितकारी जान कर तुम्हें हाथ पकड़ कर सौंपा था। अब जा कर उसको मैं का उत्तर दूंगा? हे भाई! उठ कर मुझे सिखाते क्यों नहीं ? En सुमित्राजी ने हाथ पकड़ा कर नहीं सपुर्द किया था, फिर ऐसा क्यों कहते हैं ? उत्तर- रामचरितमानस में कुछ ऐसे प्रसङ्ग श्राये हैं, जिस स्थान में कोई प्रधान घटना कहने योग्य थी उसको वहाँ न कह कर अन्यत्र उल्लेख कर दिया है । उससे यह पता चल जाता है कि यह घटना अमुस स्थान की है, पर वहाँ कषि ने वर्णन नहीं किया है। जैसे-सीताहरण के समय लक्ष्मणजी का रेखा जींचना नहीं लिखा, पर यह बात आगे चल कर मन्दोदरी के द्वारा प्रकट किया कि रामानुज लधु रेख खचाई-सोउ नहि नघिउ असि मनुसाई' इससे सिद्ध धुश्रा कि लक्ष्मणजी ने लकीर खींची थी, पर वहाँ इसका उल्लेख नहीं है । उसी प्रकार इस जगह भी समझना चाहिए कि अयोध्याकाण्ड में हाथ पकड़ा कर सौंपना नहीं लिखा है किन्तु राम- चन्द्रजी के कहने से यहाँ का बाँह पकड़ाना सूचित होता है। यह परिपाटी वाल्मीकीय में भी विद्यमान है। क्योंकि आदिकवि बाल्मीकजी में जयन्त की चर्चा अरबकापड में नहीं की है. उसको सुन्दरकाण्ड में जानकीजी के द्वारा कथन किया है ।