पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९५

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९२० रामचरित मानस । हैं। नारदमुनि ने जो मुझसे शान कहा था, वह मैं तुझसे कहता (पर अब क्या कहूँ ? कहना व्यर्थ है ) समय पीत गया ॥३॥ अध्यात्म रामायण में लिखा है कि कुम्भकर्ण ने कहा-एक बार मुझे नारदजी के दर्शन हुए, उन्होंने मुझे यह बतलाया कि तुम दोनों भाइयों का संहार करने के लिए परमात्मा नारायण रघुकुल में 'राम' नाम धारी उत्पन्न होंगे, वे राक्षप्तवंश का नाश करेंगे। पर यह कहना मैं भूल गया तुम से प्रकट न कर सका, अब वह समय आ गया। अब मरि अङ्क अँटु मोहि भाई। लोचन सुफल करउँ ' मैं जाई । ल्याम-गास सरलीरूह-लोचन । देखउँ जाइ ताप-त्रय-मोचन ॥११. हे भाई ! अब मुझसे गले लग कर मिला, मैं जा करनेत्रा को सफल कर। वाम शरीर कमल के समान नेत्रवाले, तीनों तापों के नाशक ( रामचन्द्रजी ) को जा कर देखू ॥४॥ दो-राम-रूप-गुल सुमिरत, लगन भयउ छन . एक ॥ रावन भागेउ कोटि घट, मद अरू महिष अनेक ॥६३॥ रामचन्द्रजी के रूप और गुणों का स्मरण करके एक क्षण भर अामन्द में मग्न हो गया। (रावण ने सोचा कहीं यह भी शत्रुपक्ष में जा मिला तो बड़ा अन) होगा, तन) रावण ने करोड़ों घड़ा मदिरा और अनगिनती भैले मँगवाये ॥३३॥ कुम्भकर्ण के शुद्ध विचार को पलटने के लिए रावण का युक्ति से उगने का काम करना जिस में वह मदोन्मत्त हो कर अपने पक्ष में आ जाय 'युक्ति अलंकार है। महिष खाइ करि मदिरा पाना। गरजा · बज्जाघात, समाना । कुम्भकरन दुर्मद रनरङ्गा । चला दुर्ग तजि सेन न सङ्गा ॥१॥ भैसे को खा कर और मदिरा पान कर के वज्रपात के समान गर्जा । कुम्भकर्ण नशे में चूर हो किला छोड़ कर साथ में लेना नहीं (अकेला ही) रणभूमि की ओर चला ॥१॥ देखि बिभीषन आगे. आयउ। परेउ चरन निज · नाम सुनायउ । अनुज उठाइ हृदय तेहि लोवा । रघुपति भगत जानि मन भावा ॥२॥ कुम्भकर्ण को आता देख कर विभीषण सामने आया और पाँव पड़ कर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठा कर उसने छाती.से लगा लिया और रामभक्त जान कर मन में विभीषण उसे बहुत अच्छा लगा ॥२॥ . लङ्का त्याग के समय विभीषण सब से विदा हुए थे परन्तु कुम्भकरण सो रहा था, इस कारण उससे निवेदन नहीं कर सके । इसले बड़े बन्धु से मिल कर. रामचन्द्रजी की शरण में पाने का कारण फह कर अपनी सफाई करते हैं। तात लांत रावन भोहि मारा । कहत परम-हित .. मन्त्र-बिचारा ॥ ताहि गलनि रघुपतिपहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥३॥ विभीषण ने कहा हे तात! अत्यन्त हितकारी मन्त्र का विचार कहने पर रावण ने --