पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९७

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२२ रामचरित मानस। लगा। फिर उठ कर उसने हनूमानजी को मारा, वे घूम कर तुरन्त ही ज़मीन पर गिर पड़े॥७॥ पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटाकि भट डारेसि ॥ चली बलीमुख-सेन पराई । अति भय त्रसितनकोउ समुहाई ॥५॥ फिर नल नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और योद्धात्रों को जहाँ तहाँ पटक पटक कर गिरा दिया। बानरी सेना साग चली, अत्यन्त डर से भयभीत हो कोई भी सामने नहीं आते हैं (भगदड़ मच गई) ॥५॥ शूरवीरों का डर कर भागना अनुचित भाव "ऊर्जस्वित अलंकार" है। दो अङ्गदादि कपि मुरछित, करि समेत सुग्रीवें । काँख दावि कपिराज कहूँ, चला अमित-बल सी ॥५॥ सुग्रीव के सहित अङ्गद श्रादि बन्दरों को मुर्छित कर के महा बलशाली कुम्भकर्ण वानर राज को बगल में दवा कर चला ॥ ६ ॥ चौ०-उमा करत रघुपति नर लोला । खेल गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥ भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि साहइ ऐसि लराई ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे पार्वती ! रघुनाथजी मनुष्यलीला करते हैं, जैले साँपों के झुण्ड में मिल कर गरुड़ खेल करें। जो भृकुटी टेढ़ी करने पर काल को भी खा सकते हैं, क्या उनको ऐसी लड़ाई साहती) है ? कदापि नहीं) ॥१॥ जग-पावनि कीरति बिस्तरिहहिं । गाइ गाइभवनिधि नर तरिहहिँ ॥ । सुरछा गइ मारुत-सुत जागा । सुग्रीवहिँ तब खोजन लागा ॥२॥ जगत को पविन करनेवाली कीर्ति फैलावैगे, जिसको गा गा कर मनुष्य संसार सागर के पार उतर जाँयगे । पवनकुमार की मूर्खा दूर हुई, वे सचेत हुए तब सुग्रीव को ढूँढ़ने सुग्रीवहुँ के अरछा बाली। निबुकि गयो तेहि मृतक प्रतीती ॥ काटसि दसन नालिका काना । गरजि अकास चलेउ तेहि जाना ॥३॥ सुत्रीव को चेत हुश्रा, कुम्भकर्ण ने उन्हें मुर्दा समझ लिया था उसकी काँल से खिसक पड़े। दाँत ले नाक कान काट लिया। जब गर्ज कर आकाश को चले तब उसने जाना ॥ ३ ॥ गहेउ चरन धरि धरनि पछारा । अति लाघव उठि पुनि तेहि मारा ॥ पुनि आयउ प्रभु पहिँ बलवाना । जयति जयति जय कृपानिधाना ॥४५ - उसने सुग्रीव की टाँग पकड़कर धरती पर पटक दिया. फिर बानरराज ने बड़ी फुर्ती से उठ कर उसको मारा। तब बलवान कपीश्वर प्रभु रामचन्द्रजी के पास आये पार कृपानिधान की जय हो जय जयकार पुकारने लगे ॥ ४॥ लगे ॥२॥ ।