पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९८

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षष्ठ सोपान, लकाकाण्ड । नाक कान काटे जिय जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी । सहज-भीम पुनिबिनु तिनासा। देखतः कपि दल उपजी त्रासा ॥५॥ माक कान फरना मन में समझ कर हदय में पड़ी प्लानि हुई, तब क्रोध कर के लौटा। एक तो स्वाभाविक ही डरावना था फिर रिना नाक कान के हो गया, उसे देखते ही बानरी दल में भय उत्पन हुधा ॥५॥ भय उपजाने के लिए उसकी स्वामाविक श्राकृति हो पर्याप्त थो, सिल पर नकटा बूचा होने से और भी भयावना हो गया 'द्वितीय समुन्वय अलंकार' है। दो०-जय जय जय रघुबस मनि, धाये कपि देइ हूह । एकहि बार तासु पर, छाडेन्हि गिरि-तरु जूह ॥६६॥ रघुघंशमणि की जय जय का सुटला मलाते हुए बन्दर दौड़े, पर्वत और वृक्षों का समूह एक साथ ही उस पर चलाया ॥ ६६ ॥ चौ०-कुम्भकरन रनरङ्ग विरुद्धा । सनसुख चला काल जनु क्रुद्धा । कोटि कोटि कपिधरि धरि खाई । जनु टोड़ी गिरि-गुहा-समाई॥१॥ रणभूमि के सामने कुम्भकर्ण इस तरह विरुद्ध होकर चला, मानों क्रोधित काल हो। करोड़ी बन्दरों को पकड़ पकड़ कर जाने लगा, ऐसा मालूम होता है मानों पहाड़ की गुफा में रिद्धियाँ समाती हो ॥१॥ फाल का पाँव ले चलना प्रसिद्ध है क्योंकि वह पश्यमान नहीं है और कुम्भकर्ण काल नहीं राक्षसभर है। इस अहेतु के हेतु मान कर उत्प्रेक्षा करना 'असिद्धविपया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है । दूसरा-झुण्ड के झुण्ड बानरों को कुम्भकर्ण के मुख में समाना उत्प्रेक्षा का विषय है, टीड़ियाँ पहाड़ की गुफा में प्रवेश करती ही हैं 'उत्कविषया वस्तूत्प्रेक्षा' है। कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा । कोटिन्ह मीजि मिलब महि गर्दा । मुख नासा सवनन्हि की बाटा । लिसरि पराहिँ भालु कपि ठाटा ॥२॥ करोड़ों को पकड़ कर शरीर से मल दिया और करोड़ों को मौज कर धरती तथा धूल में मिलाता है। मुख नाक और कानों की राह से झुण्ड के झुण्ड भालू-बन्दर निकल कर भागते हैं ॥२॥ रन-मद-मत्त निसाचर दर्षा । बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अ॥ मुरे सुझट सब फिरहिँ न फेरे । सूझ न नयन सुनहि नहि टेरे ॥३॥ रण के नशे में मतवाला झोधित राक्षस ऐसा मालूम होता है मानों विधाता ने संसार को इसे अर्पण कर दिया हो और यह खा जायगा। सब योद्धा बन्दर पीछे लौट चले फेरने से नहीं फिरते हैं (डर के मारे) न उन्हें आँख से सूझता है और न बुलाने पर कान से सुनाई पड़ता है ॥३॥ वस्तु निर्माण कर किसी को अर्पण करना सिख आधार है, रसोई बना कर लोग इष्टदेव