पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१०२

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जैसे विष्णु भगवान् शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कुछ दोष नहीं लगाते । सूर्य और अग्नि अच्छे-बुरे सभी रसों को खाते हैं; जैसे, ॐ पर उन्हें कोई बुरा नहीं कहता।। सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई ॐ सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई समरथ कहुँ नहिं दोष गोसाईं 8 रवि पावक सुरसरि की नाई गंगाजी में पवित्र और अपवित्र सब जल बहता है; पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता । हे हिमवान् ! सूर्य, अग्नि और गङ्गाजी की तरह समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता है। जौं अस हिसिषा' हिं नर जड़ बिबेक अभिमान।। ॐ एहिं कत्लप भरि नरकमहुँ जीव कि ईस समान ॥६९।। जो मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से ऐसी बराबरी अर्थात् सूर्य, अग्नि और गङ्गा की समता करते हैं, वे कल्पभर के लिये नरक में पड़ते हैं। भला, कहीं * जीव भी ईश्वर के समान हो सकता है ? राम सुरसरि जल कृत बारुनि जाना # कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना ॐ सुरसरि मिलें सो पावन जैसे ॐ ईस अनीसहि अंतरु तैसे राम गंगाजल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संतजन कभी उसकी पान ॐ नहीं करते । पर वही मदिरा गङ्गाजी में मिल जाने से जैसे पवित्र हो जाती है, राम ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है।। सम्भु सहज समरथ भगवाला ॐ एहि विहँ सच विधि कल्याना दुराराध्य दै अहहिं महेसू ॐ आसुतोष पुनि किएँ कलेख्न । भगवान् महादेवजी स्वभाव ही से समर्थ हैं। इसलिये इस बिबाह से सव * तरह का कल्याण है। परन्तु महादेवजी की आराधना बड़ी कठिन है; पर बलेश म करने से ( तप से ) वे बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते हैं। ॐ जौं तषु करइ कुमारि तुम्हारी ॐ भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी राम जद्यपि बर अनेक जग माहीं एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं । जो तुम्हारी पुत्री ( उनकी प्राप्ति के लिये ) तप करे, तो शिवजी होनहार * १. होड़, बरावरी । २. जीव ।।