पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ॐ नहीं जा सकती। आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके पालन करू, हे नाथ ! मेरा है म यही परमधर्म है। मातु पिता गुर प्रभु के बानी ॐ बिनहिं विचार करिअ सुभ जानी हूँ ) तुम्ह सब भाँति परम हितकारी के अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी राम | माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना किसी हिचक के शुभ जानकर करना ( मानना ) चाहिये। आप तो सब तरह से मेरे परम हितकारी । हैं। हे नाथ ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है। प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना ॐ भगति विवेक धरम जुत रचना म) कह प्रभु हेर तुम्हार पन रहेछ ॐ अब उर राखेहु जो हम कहेऊ राम ॐ शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्मयुक्त वचन-रचना सुनकर रामचन्द्रजी कैं बहुत संतुष्ट हुए। प्रभु ने कहा-हे हर ! आपका प्रण पूरा हो गया । अब हमने राम हैं जो कहा है, उसे हृदय में रखना ।। रामे अंतरधान भए अस भाखी ® संकर सोइ मूरति उर राखी राम तबहिं सप्तरिषि' सिव पहिं आए ॐ बोले प्रभु अति बचन सुहाए यों कहकर रामचन्द्रजी अन्तद्धन हो गये। शिवजी ने उनकी वही मूर्ति के * अपने हृदय में रखली । उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आये और शिवजी * ने उनसे अति सुन्दर वचन कहे। तसे पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु । राम - गिरिहिं प्रेरि पठयेहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥७॥ .' आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिये और हिमा- ॐ । चल से कह-सुनकर पार्वती को घर भिजवाइये और उनके सन्देह को दूर कीजिये। ॐ तंब रिषि तुरत गौरि पहँ गयऊ ॐ देखि दसा मुनि विस्मय भयङ सुमा रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी ॐ मूरतिवंत तपस्या जैसी । तब वे ऋषि तुरंत ही पार्वती के पास गये। पार्वती की दशा देखकर उनके राम मन में बड़ा आश्चर्य हुआ । ऋषियों ने वहाँ पार्वती को कैसा देखा, मानो मूर्ति। मान तपस्या ही हो। ॐ १. सप्तर्षि-कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम और यमग्नि ।