पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१३०

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. बालकाण्ड ६ १२७ हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गई। मैना अपनी पुत्री के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं--- ॐ नारद कर मैं काह विगारा $ भवन मोर जिन्ह वसत उजारा । अस उपदेस उमहिं जिन्ह दीन्हा के बौरे' वरहिं लागि तपु' कीन्हा। मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ ए दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने इस बावले * वर के लिये तप किया। साँचेहु उन्ह के मोह न माया ॐ उदासीन धनु धासु न जाया होम पर घर घालक लाज न भीरा ॐ बाँझ कि जान प्रसव के पीरा। | सचमुच उनको न किसी का मोह है, न माया; न उनके घन है, न घर है । संम) और न स्त्री ही है। वे सबसे उदासीन हैं। वे पुराये का घर उजाड़ने वाले हैं। तिमी उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को राम, क्या जाने ? ॐ जननिहिं बिकल बिलोकि भवानी ॐ बोली जुत' विवेक मृदु वानी सुम) अस बिचारि सोचहि मति माता की सौ न टरइ जो रचइ विधाता माता को विकल देखकर पार्वती विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं-हे माता ! विधाता जो रच देता है, वह टलता नहीं; ऐसा सोचकर तुम शोक मत करो। । करम लिखा जौं बाउर नाहू ॐ तो कत' दोप लगाइझ काहू तुम्ह सन मिटिहि कि विधि के अंका ॐ पातु व्यर्थ जनि लेहु कलंका जो मेरे प्रारब्ध में बाक्ला ही पति लिखा है, तो किसी को दोष क्यों लगाया जाय ? हे माता ! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं ? वृथा कलंक सत लो। । छंद-जनि लेहु मातु कलंक करुना परिहरहु अक्सर नहीं । दुख सुख जो लिखा लिलार हसरे जाव जहँ पाउव तहीं ॥ माम सुनिउमा बचन बिनीत कोसल सकल अवला सोचहीं । है बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषल नयन वारि विमोचहीं । १. वावले । २. के लिये । ३. युक्त, सहित ! ४. क्यों ?