पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१३२

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रामचन्द्रजी को देखा, इन्हें मोह हो गया और भ्रम में पड़कर सीताजी का वेष धारण कर लिया।

छन्द-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरी
   हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु के जग्य जोयानल जरी ॥ 
   अब जनमि तुम्हरे भवन निजपति लागि दारुन तपु किया 
   अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्वदा संकर प्रिया ॥'


  सती ने सीता का वेष धारण किया, इसी अपराध से शिवजी ने उन्हें एस) त्याग दिया । शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गई थीं। अब इन्होंने तुम्हारे घर में जन्म लेकर अपने पति के लिये कठिन तप किया है । ऐसा जानकर सन्देह छोड़ दो। पार्वती जी सदा ही शिवजी की प्रिया हैं।

'सुनि नारद के बचन तब सव कर मिटा विषाद । छन मह ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संवाद।९८॥


  तब नारद के वचन सुनकर सबका दुःख मिट गया और जगभर ही में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया।
तव मैना हिमवन्त अनंदे, पुनि पुनि पार्वती पद वंदे।
नारि पुरुष सिसु जुवा सयाने, नगर लोग सब अति हरषाने॥
 तब मैना और हिमाचल बहुत आनन्दित हुये और उन्होने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की । स्त्री, पुरुष, वालक, युवा, वृद्ध और नगर के सभी

लोग बहुत प्रसन्न हुये ।

   लगे होन पुर मंगल गाना । सजे सवहि हाटक घट नाना ॥
   भॉति अनेक भई जेवनारा । सुपसास्त्र जस कछु व्यवहारा ॥
 नगर में आनन्द-मङ्गल के गीत गाये जाने लगे और सबने सुवर्ण के तरह-तरह के कलश सजाये । पाकशास्त्र में जैसा विधान है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई ( रसोई बनी ) ।।

१. सोना ।