पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१३४

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| बाल-काण्ड १३१ ।

सव देवताओं को आदर-सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिये । वेद की रीति से बेदी सजाई गई और सुन्दर स्त्रियाँ श्रेष्ठ, मंगल गीत गाने लगीं।

    सिंहासनु अति दिव्य सुहावा । जाइ न वरनि विचित्र वनावा ।ॐ 
    वैठे सिव विप्रन्ह सिरु नाई ।ॐ हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई | 
  वेदी पर दिव्य सुहावना सिंहासन था, जो ऐसा विचित्र बना था कि | उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को प्रणाम करके और हदय में अपने स्वामी रामचन्द्रजी को स्मरण करके शिवजी उस पर बैठ गये ।
 बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई । ॐ करि सिंगारु सखी लेइ आई ॥
 देखत रूपु सकल सुर मोहे । वरनै छवि अस जग कवि को है ॥
फिर मुनियों ने पार्वती को बुलवाया। सरिचयाँ उनका शृङ्गार करके लिवा लाई । पार्वती के रूप को देखकर सारे देवता मोहित हो गये । संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके ? 

ॐ जगदम्बिका जानि भव वामा । ॐ सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ।

  सुन्दरता मरजाद भवानी । ॐ जाइ न कोटिहूँ वदन वखानी | 

ॐ पार्वती को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने उन्हें राम) मन ही मन प्रणाम किया । भवानी सुन्दरता की सीमा हैं। उनकी सुन्दरता करोड़ों मुंखों से भी नहीं कही जा सकती।

छंद-कोटिहुँ बढ्न नहिं वनै वरनत जग जननि सोभा महा।

   सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंद मति तुलसी कहा॥ 
   छवि खानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ ।
   अवलोकि सकइन सकुचि पति पद कमल मन मधुकर तहाँ ॥
जगत् की जननी पार्वती की महान् शोभा को वर्णन करोड़ मुँह से भी नहीं किया जा सकता। वेद, शेषजी और सरस्वती तक उसे कहते हुए संकोच - करते हैं, तब मंद-बुद्धि तुलसी किस गिनती में है ? शोभा की खान माता भवानी शिवजी के पास मण्डप में गई। वे लज्जा के मारे पति के पद-कमलों को देख नहीं सकीं, पर उनका मनरूपी भौंरा वहाँ ( लुब्ध हो गया ) था। 

|| १. कौन । २. भौंरा ।