पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१३६

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    सिव कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहि कियो। ॐ
    पुनि गहे पद पाथोज मैना प्रेम परिपूरन हियो ॥
बहुत प्रकार के दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा--हे शङ्कर ! आप पूर्णा-कमि हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ ! यह कहकर उन्होंने शिवजी के पाँव पकड़ लियेतब कृपा-सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम-पूर्ण हृदय से मैना ने शिवजी के चरणकमले पकड़े ( और कहा )----
   नाथ उमा मम प्रान सस गृहकिंरी' करेहु ।
   छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न वरु देहु।१०१। 
  हे नाथ ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलुनी बनाइये। इसके समस्त अपराधों को क्षमा करते रहियेगा । * प्रसन्न होकर मुझे यही बर दीजिए।
   वहु विधि संभु सासु समुझाई । गबनी भवन चरन सिरु नाई ॥ 
   जननी उमा बोलि तब लीन्ही । ॐ लै उछङ्ग सुंदर सिख दीन्ही ॥
 शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। बह शिबजी के चरणों में प्रणाम करके घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुलाया और गोद में ॐ बैठाकर सुन्दर सीख दी। 
  
   करेहु सदा संकर पद पूजा । ॐ नारि धरम पति देव न दूजा ॥
   वचन कहत भरि लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥
  हे पुत्री ! तू सदा शिवजी के चरणों की सेवा करना । नारिर्थों का यही एम् धर्म है। उनके लिए पति के सिवा कोई दूसरा देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते आँखों में आँसू भर आये। उन्होंने कन्या को फिर अपनी छाती से लगा लिया । 
   कत बिधि सृजी नारि जग माहीं । ॐ पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॐ ॥
   भै अति प्रेम बिकल महतारी । ॐ धीरज कीन्ह कुसमउ विचारी ॥
  ( उन्होंने फिर कहा ), ब्रह्मा ने संसार में नारी को क्यों पैदा किया ? पराधीन को तो सपने में भी सुख नहीं मिलता। उस समय पार्वती की

१. घर की दासी । ३. गोद। ३. क्यों ?