पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१४०

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हैं मैं जाना तुम्हार गुन सीला की कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला राम्रो सुलु मुनि अाजु समागम तौर ॐ कहि न जाइ जस सुखु मन मोरे है ( याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से कहते हैं कि ) मैंने तुम्हारा गुण और राम शील जान लिया। अब मैं रामचन्द्रजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि ! । सुनो, तुम्हारे मिलने से आज मेरे मन में जो आनन्द हुआ है, वह कहा नहीं एका जा सकता। * राम चरित अति अमित मुनीसा ॐ कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा * तदपि जथास्तुत कहउँ बखानी के सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी राम) हे मुनीश्वर ! रामचरित्र अतिशय अपार है। उसको सौ करोड़ शेषजी भी ॐ नहीं कह सकते। तो भी जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के पति ( प्रेरक) और राम) हाथ में धनुष-बाण लिये हुए श्रीरामचन्द्रजी को स्मरण करके कहता हूँ। सारद दारु' नारि सम स्वामी ने राम सूत्रधर अंतरजामी गुना जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी ॐ कवि उर अजिर नचावहिं बानी एम हे सुनीश ! सरस्वती जी कठपुतली के समान और स्वामी अन्तर्यामी । रामचन्द्रजी ( तागा पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले ) सूत्रधार हैं । अपना * भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय-रूपी आँगन में सरए स्वती को वे नचाया करते हैं। प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा ॐ बरनउँ विसद तासु गुन गाथा हैं परम् रम्य गिरिवर कैलासू ॐ सदा जहाँ सिव उमा निवार राम उन्हीं कृपालु रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हैं और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ । गिरिश्रेष्ठ कैलाश बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिवएम) पार्वती सदा निवास करते हैं। । सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किन्नर सुनि बृन्द ।। बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहि सिव सुख कंद।१०५॥ उस पर्वत पर सिद्ध, तपस्वी, योगी, देव, किन्नर, मुनियों के समूह और पुण्यात्मा लोग रहते हैं और सब सुख के मूल श्रीमहादेवजी की सेवा करते हैं । १. शेषनाग । २. काठ। २. आँगन ।।