पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१४४

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  • १४१ हैं जिस तरह मेरा अज्ञान दूर हो, वही कीजिये । राम मैं बन दीख राम प्रभुताई ) अति भय विकल न तुम्हहिं सुनाई

तदपि मलिन मन दोधु न अावा ॐ सो फलु भली भाँति हम पावा | मैंने ( पिछले जन्म में ) बन में रामचन्द्रजी की प्रभुती देखी है । अत्यन्त भयभीत होने से मैंने वह बात आपको नहीं सुनाई थी। तो भी मेरे मलिन मन को ज्ञान न हुआ । उसको फल मैंने अच्छी तरह पा लिया । | अजहूँ छ संसउ भन मोरे ॐ रहु कृपा बिनवउँ कर जोरे । हैं प्रभु तव मोहिं बहुं भाँति प्रबोधा ॐ नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा | हे नाथ ! मेरे मन में अब भी कुछ सन्देह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हैं। हे प्रभु, आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया राम था । हे नाथ ! उसे याद करके क्रोध न कीजिएगा । | तब कर अस बिमोह अव नाहीं ॐ राम कथा पर रुचि न साहीं कहहु पुनीत राम गुन गाथा 5 जॅगराज भूपने सुरनाथा अब मुझे पहले जैसा मोह नहीं है। अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है। हे शेषनाग को भूषण रूप में धारण करने वाले ! हे देवों के नाथ ( शिवजी ) ! आप रामचन्द्रजी के गुणों की पवित्र कथा कहिए । बंदउँ पद धरि धनि सिरु विनय रउँ कर जोरि।। बरनहुरघुबर विसद जसु छ ति सिद्धांत निचो१ि०९ मैं धरती में सिर रखकर आपके चरणों को प्रणाम करती हैं और हाथ जोड़३ कर विनती करती हैं। आप वेदों के सिद्धान्त को निचोड़कर रामचन्द्रजी को निर्मल यश वर्णन कीजिए। ॐ जदपि जोषिता' नहिं अधिकारी ॐ दासी मन क्रम वचन तुम्हारी राम्गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं की आरत अधिकारी जहँ पावहिं । यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि | मैं मन, कर्म और वचन से आपकी दासी हैं। साधुजन आर्च (सुनने को आतुर) * अधिकारी पाते हैं, तो गूढ़ तत्व भी नहीं छिपाते ।। १. स्त्री । २. छिपाते हैं। -*-*-E)* E E E E E)(®©®©