पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ॐ १४६ ॐ ॐ . ॐ :: तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर जैसा मैंने सुना है और जैसी मेरी के म) बुद्धि है, उसके अनुसार कथा कहूँगा । हे पार्वती ! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही अच्छा सुखदायक और सन्त-सम्मत है और मुझे भी अच्छा लगा है। एक बात नहिं मोहिं सुहानी ॐ जदपि मोहवस कहेहु भवानी । तुम्ह जो कहा राम कोउ ना ॐ जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना । पर हे पार्वती ! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह । के वश होकर ही कही है। तुमने जो कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद । गाते और मुनिजन जिनका ध्यान करते हैं। । कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।। है l पाषंडी हरि पद बिमुखजानहिं झूठ न साँच॥११४॥ ॐ जिनको मोहरूपी पिशाच ने घेर रक्खा है, जो पाखण्डी हैं, जो भगवान् * के चरणों से विमुख हैं और जो सत्य-असत्य कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम * * मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं। अग्य अकोविद अंध अभागी ॐ काई विषय मुकुर मन लागी लम्पट कपटी कुटिल विसेषी ॐ सपनेहु संत सभा नहिं देखी हैं जो अज्ञानी, मूर्ख, अन्धे, भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पण पर रोम) विषयरूपी काई लग रही है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े ही दुष्ट हैं और राम) जिन्होंने कभी स्वप्न में भी सन्तों की सभा नहीं देखी। ॐ कहहिं ते वेद असंमत वानी ॐ जिन्हके सूझ लाभु नहिं हानी के मुकुर मलिन अरु नयन् बिहीना ॐ राम रूप देखहिं किमि दीन राम | जिन्हें अपने लाभ और हानि का ज्ञान नहीं, वेही वेदों के विरुद्ध बातें कहा करते हैं। एक तो मैला दर्पण और दूसरे आँखों से रहित, भला, वे बेचारे राम का रूप कैसे देख सकते हैं ? जिन्हके अगुन न सगुन विवेका ॐ जल्पहिं कल्पित वचन अनेका | हरि माया वस जगत भ्रमाहीं ॐ तिन्हहिं कहत कछु अघटित नाहीं हैं जिनको निगुण और सगुण का कुछ भी ज्ञान नहीं, जो मनमानी गप्पें हाँका है से करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत् में भ्रमते फिरते हैं, उनके तीन लिये कुछ भी कह डालना असम्भव नहीं है। |