पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१६८

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मे १६५ ॐ. अच्छी सुन्दरता दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीफ ही जायगी और राम इन्हीं को हरि ( बानर ) जानकर ख़ास तौर से बरेगी। हैं मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ $3 हँसहि संभु गन अति सचे' पाएँ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि वानी के समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी रानी नारद मुनि को मोह हो रहा था और उनका मन दूसरे के हाथ ( माया के वश ) में था। शिवजी के गण खूब मज़ा ले-लेकर हँसते थे। यद्यपि मुनि उनकी ऊटपटाँग बातें सुनते थे; पर तो भी वे उनकी समझ में नहीं आती थीं, क्योंकि उनकी बुद्धि भ्रम में सनी हुई थी। काहु न लखा. सो चरित बिसेषा ॐ सो सरूप नृपकन्याँ देखा मर्कट" वदन भयंकर देही छ देखत हृदयँ क्रोध भी तेही इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं देखा । केवल उस राजकन्या ने वह रूप देखा। मुनि का मुँह बन्दर का-सा और सारा शरीर डरावना था। उसे देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया। है । सखी संग लै कुआँर तब चलि जनु जसराल । देवल फिरई महीण अब कर सरोज जयसाल।१३४। सखियों को साथ लेकर राजकुमारी इस तरह चली जैसे राज-हंसिनी चल रही हो । वह सब राजाओं को देखती फिरती थी। उसके कमल ऐसे हाथों में जयमाला थी ।। जेहि दिसि । वैठे नारद फूली ॐ सो दिसि तेहि न विलोकी भूली राम पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं ॐ देखि दसा हरगन भुसुकाहीं | जिसं ओर नारद (रूप के) गर्व में फूले बैठे थे, उस और उसने भूल कर राम) भी नहीं ताका । नारदमुनि बार-बार उचकते और छटपटाते थे। उनकी दशा को राम ॐ देखकर शिवजी के गण मुस्कराते थे । राम धरि छुए तनु तहँ गयउ कृपाला ॐ कुरि हरपि सेलेउ जयमाला । दुलहिः ले गे' लच्छिलिवासा ॐ नृए समाज सब भयउ निरासा | लु भगवान् राजा का शरीर धारण करके वहाँ जा पहुँचे । राजकुमारी । ने प्रसन्न होकर उनके गले में जयमाला डाल दी । लक्ष्मीनिवास भगवान् १. रस ले-लेकर । २. वन्दर । ३. गये ।