पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१६९

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। १६६ वटा मनस ॐ दुलहिन को ले गये । सारी राज-मंडली निराश हुई। होम) मुनि अति विकल मोहमति नॉठी ॐ मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी तव हर गन वोले मुसुकाई के निज़ मुख मुकुर बिलोकहु जाई रामो : मुनि बहुत विकल थे; मोह ने उनकी बुद्धि को जकड़ लिया था। मानो राम गाँठ खुल जाने से मणि गिर गई हो। तब शिवजी के गणों ने मुस्कराकर कहा—जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिये ।। अस कहि दोउ भागे भय भारी $ बदन दीख मुनि बारि' निहारी वेषु विलोकि क्रोध अति वाढ़ा ॐ तिन्हहिं सराप दीन्ह अति गाढ़ा - ऐसा कंहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भाग खड़े हुये । मुनि ने पानी में झाँककर अपना मुंह देखा । अपना वेष देखकर उन्हें बहुत क्रोध बढ़ा ।उन गणों को उन्होंने बड़ा कठोर शाप दिया। हो होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। राम हँसह महिं सो लेह फल बहरि हँसेह मुनि कोउ।१३५ एम) तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ । मेरी हँसी की, । उसको फल लो । अब फिर किसी मुनि की हँसी करना । पुनि जल दीख रूप निज पावा ॐ तदपि हृदयँ संतोष न वा फरकत अधर कोप मन माहीं ॐ सपदि चले कमलापति पाहीं मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना असली रूप प्राप्त हो गया है। के इतने पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होंठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध की राम) ( भरा ) था । तुरंत ही वे कमलापति भगवान् के पास चले ।। ॐ दैहउँ स्राप कि मरिहउँ जाई के जगत मोरि उपहास कराई राम बीचहि पंथ मिले दनुजारी के संग रमा सोइ राजकुमारी । मन में सोचते जाते थे—जाकर या तो शाप दूंगा या प्राण दे दूंगा। । उन्होंने जगत् में मेरी हँसी करा दी। बीच रास्ते ही में उन्हें दैत्यों के शत्रु विष्णु । भगवान् मिले। साथ में लक्ष्मी और वही राजकुमारी थीं ।। वोले मधुर , वचन . सुरसाईं ॐ मुनि कहँ चले विकल की नाईं ॐ ॐ सुनत वचन उपजा अति क्रोधा ॐ मायाबस न रहा मन बोधा होम, १. पानी । २. ओंठ ।।