पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१७०

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ॐ देवताओं के स्वामी भगवान् ने मीठे वचनों से कहा--हे मुनि ! व्याकुल है। मि की तरह कहाँ चले ? उनका वचन सुनते ही नारद को वड़ा क्रोध आया। | माया के वश में होने के कारण मन में चेत नहीं था । रामो पर संपदा सकहु नहिं देखी ॐ तुम्हरे इरिया कपट विसेखी छै मथत सिंधु रुद्रहि बौराएहु ॐ सुरन्ह प्रेरि विप घान कराए | मुनि ने कहा--तुम दूसरों का ऐश्वर्य नहीं देख सकते; तुम में ईष्य और कपट अधिक है। सिंधु मथने के समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया; और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विष-पान कराया। ३ असुर सुरा बिष संरहि आए रसा सनि चारू।। ॐ स्वार्थ साधक कुटिल तुरूह सदा पटव्यवहारू १३६ । असुरों को शराब और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर कौस्तुभ-मणि हथिया ली। तुम बड़े धूर्त और मतलवी हो। तुम सदा राम कपट का व्यवहार करते हो। | परम स्वतंत्र न सिर पर कोई ® भावइ मनहिं करहु तुम्ह सोई है " भलेहि मंद संदेहि भल रहू 3 दिसमउ हर्ष न हिशें कछु धरहू तुम बड़े स्वाधीन हो; सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो जी को भाता है, वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो । हृदय में ॐ ने तुम्हें विस्मय होता है, न हर्ष । डहँकि डहँकि' परिचेहु सव काहू ॐ अति असंक मन सदा उछाहू है। म) करम सुभासु तुम्हहिं न वाधा ॐ अव लगि तुम्हहिं न काहूँ साधा मो सबको ठग-ठगकर परक गये हो; किसी का डर तो है नहीं, इससे ( ठगने राम के काम में ) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ और अशुभ कर्मों की भी तुम्हें गि) है कोई रुकावट नहीं है। अबतक तुमको किसी ने ठीक नहीं किया था। = राम्) भले भवन अब वायन दीन्हा ॐ पावहुगे फल आपन कीन्हा पुन । वंचेहु मोहि जवनि धरि देहा 6 सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा - ए. अब तुमने अच्छे घर में बैना दिया है। अव तुम अपने किये का फल पाओगे । । जो शरीर धारण करके तुसने मुझे छला है, वहीं शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है। १. ठग-ठगकर, २. विवाहादि का मिष्ठान्न ।।