पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१७१

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-~-राम) ॐ १६८ मुलुक्क छ : ॐ कपि प्राकृति तुम्ह कीन्हि हमारी के करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी । मर्म अपकार कीन्ह तुम्ह भारी ॐ नारि विरहूँ तुम्ह होब' दुखारी राम्रो कैं तुमने मेरी आकृति बंदर की कर दी थी, वही बंदर तुम्हारी सहायता करेंगे। तुमने मेरा बड़ा अपकार किया है; तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे। स्राप सीसधरि हरषि हिउँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि। => निज मायाकै प्रबलताकषि कृपानिधिलीन्हि।१३७ म) शाप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होकर प्रभु ने नारदजी से बहंत राम विनती की और कृपा के भंडार भगवान् ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली। । जव हरि माया दूरि निवारी ॐ नहिं तहँ रमा न राजकुमारी का । तव मुनि अति सभीत हरि चरना ॐ गहे . पाहि प्रनतारति हरना ॐ. जब भगवान् ने माया दूर कर लीं, तब न वहाँ लक्ष्मी थी, न राजकुमारी । * । तब मुनि ने भयभीत होकर प्रभु का चरण पकड़ लिया और कहा--हे शरण में । के आये हुए का दुःख हरने वाले ! मेरी रक्षा करो।। मृषा होउ मम खाप कृपाला ॐ मम इच्छा कह दीनदयाला हूँ मैं दुर्वचन कहे बहुतेरे ॐ कह मुनि पाप मिटिहि किमि मेरे हे कृपा करने वाले ! मेरा शाप मिथ्या हो जाय। तब दीनों पर दया करने ॐ वाले भगवान् ने कहा-यह तो मेरी इच्छा से हुआ है। मुनि ने कहा- मैंने । । अपको बहुत बुरे वचन कहे। मेरे पाप कैसे मिटेंगे ? भजहु जाय संकर संत नामा $ होइहि हृदय तुरत बिस्रामा कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरे ॐ अति परतीति तजहु जनि भोरें हैं में भगवान ने कहा—जाकर शंकरजी के शत नाम का जप करो । तब तुरंत (राम) मैं ही हृदय में शांति होगी। शिव के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है। इस विश्वास रामो को भूलकर भी न छोड़ना। ॐ जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी ॐ सो ने पाव मुनि भगति हमारी अस उर धरि महि विचरहु जाई ॐ अव न तुम्हहि माया लिअराई। * शिवजी जिस पर कृपा नहीं करते, वह हे मुनि ! मेरी भक्ति नहीं पाता। १. होगे । २. खींच !