पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१७२

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ॐ ऐसा हृदय में धारण करके जाकर पृथ्वी पर विचरो । अब मेरी माया तुम्हारे निकट से नहीं आयेगी । ॐ बहु बिधि मुनिह प्रबोधि प्रभु तव भए अंतरधान। - सत्यलोक नारद चत्ले करत राम गुल गान् ।१३८ । रामो प्रभु बहुत प्रकार से मुनि को ढाढ़स देकर तब अंतर्धान हुये और नारदजी (राम) रामचन्द्रजी के गुणों का गान करते हुये सत्यलोक की ओर चले। हर गन भुनिहि जात पथ देखी ) क्गित मोह मन हर्प विसेपी म) अति सभीत नारद पहिं आए $ गहि पद आरत वचन सुनाये | शिव के गणों ने मुनि को मार्ग में जाते हुये देखा कि वे मोह से रहित हैं । राम और उनके मन में हर्ष बहुत है। वे बहुत डरे हुये नारदजी के पास आये और राम ॐ उनके चरण पकड़कर उन्होंने बड़ी नम्रता के वचन कहे--- का हर गन हम न विग्र मुनिराया ॐ वड़ अपराध कीन्ह फलु पाया स्राप अनुग्रह करहु कृपाला ॐ बोले नारद दीनदयाला के हे मुनिराज ! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिव के गण हैं। हमने बड़ा अपराध (राम) किया और उसका फल पा लिया। अब हे कृपालु ! आप शाप को दूर कर ॐ दीजिये। दोनों पर दया करने वाले नारदजी ने कहा--- युवा निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ के वैभव बिपुल तेज वल होऊ भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहि धरिहहिं विष्नु मनुज तनु तहिा । ॐ तुम दोनों जाकर राक्षस होओ; तुसको बहुत ऐश्वर्य, तेज और वल प्राप्त ३ मा हो। तुम जब अपनी भुजाओं के बल से संसार को जीत लोगे, तब भगवान् । ॐ विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेंगे । तुम् समर मरन हरि हाथ तुम्हारा की होइहहु मुकुत न पुनि संसारा चले जुगल मुनि पद सिरु नाई के भए निसाचर कालहि पाई। ॐ विष्णु भगवान् के हाथ से युद्ध में तुम्हारी मृत्यु होगी । तब तुम मुक्त हो । मेंजाओगे और संसार में फिर जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर गिने के नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुये ।। ..!" -53-. 5

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