पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१७८

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छात्र-छाड़ ॐ माँगहु वर वहु भाँति लोभाये ॐ परम धीर नहिं चलहिं चलाये । राम अस्थिमात्र होइ रहे समीरा ॐ तदपि मनाग' मनहिं नहिं पीरा राम . उन्होंने बहुत तरह से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो; पर वे बड़े । णमो धैर्यवान् थे, विचलित नहीं हुये । यद्यपि उनको शरीर हड्डियों का केवल ढाँचा मात्र रह गया था, पर उनके मन को ज़रा भी पीड़ा नहीं थी। राम प्रभु सर्बग्य दास निज जानी ॐ गति अनन्य तापस नृप रानी माँगु माँगु वर भै नभ बानी परम गॅभीर कृपामृत सानी * सर्वज्ञ प्रभु ने तपस्वी राजा-रानी को अपना दास जाना और प्रभु के सिवा उनकी दूसरी कोई गति भी नहीं थी। तब बहुत गंभीर और कृपारूपी अमृत में सनी हुई आकाश-बाणी हुई—बर माँगो, वर माँगो।। | मृतक जिवन गिरा सुहाई $ सवन रंध्र होइ उर जव शाई ॐ हृष्ट पुष्ट तन भये सुहाए $ मानहुँ अवहिं भवन ते आये हैं। राम) वह मरे हुए को भी जिलाने वाली सुन्दर वाणी जब कानों के छेदों से राम के होकर हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट ( स्वस्थ ) हो गये, मानो अभी घर से आये हैं। ॐ । स्रवल सुधा सस बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। - बोले मनु कर दडवत प्रेम न हृदय ससात।१४५। | कानों में अमृत के समान लगने वाले बचन सुनकर पुलकित और प्रफुल्लित होने शरीर होकर मनु दंडवत करके बोले, उनका प्रेम हृदय में साता नहीं था। | शि) सुनु सेवक सुरतरु सुरथेनू की विधि हरि हर वंदित पद रेनू रामो सेवत सुलभ सकल सुखदायक ॐ प्रनतपाल सचराचर नायक जो सेवकों के लिये कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं, जिनके पैरों की धूल | ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी से वंदित है, जो सेवा करने में सुलभ तथा सब सुखों : के देने वाले हैं, जो दोनों के पालने वाले और जड़-चेतन के स्वामी हैं, वे भगवान् सुनिये ।। । जौं अनाथ हित हम पर नेहू ) तौ प्रसन्न होइ यह वर देहू के * जो सरूप बस सिव मम माहीं ॐ जेहि कारन मुनि जतन कराहीं' १. जरा । २. करते हैं।