पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१८१

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। १७८ . अचान % ॐ छवि समुद्र हरि रूप विलोकी ॐ एकटक रहे नयन पट' रोकी हैं। एम चितवहिं सादर रूप अनूपा ॐ तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा रामो ॐ शोभा के समुद्र भगवान् का रूप देखकर, राजा-रानी पलकें भाँजना रोकएछ कर, एकटक देखते रहे। अनुपम रूप को वे आदर-सहित देख रहे थे। वे मनु राम्रो है और सतरूपा अघाते नहीं थे। एम् हरप विवस तनु दसा भुलानी ॐ परे दण्ड इव गंहि पद पानी पाने * सिर परसे प्रभु निज कर कंजा' ॐ तुरत उठाए करुनापुञ्जा * हर्ष के बश में हो जाने से उनको अपने शरीर की सुधि भूल गई। वे के हाथों से भगवान् के चरण पकड़कर दंड की तरह भूमि पर पड़ गये । कृपा की राशि प्रभु ने अपने कर-कमलों से उनका सिर छुआ और उन्हें तुरन्त ही उठाया। होम बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहिं जानि । एसे ३ माँगहु वर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ।१४८। ॐ फिर कृपा के घर भगवान् वोले—मुझे बहुत ही प्रसन्न जानकर और महादानी समझकर, जो मन को भाये, वह वर माँग लो ।। सुनि प्रभु वचन जोरि जुग पानी ॐ धरि धीरजु बोले मृदु बानी नाथ देखि पद कमल तुम्हारे ॐ अव पूरे सब काम हमारे प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धैर्य घरकर राजा ने मीठे कैं वचन कहे--हे नाथ ! आपके कमल ऐसे चरणों को देखकर अव हमारी सब । मनोकामना पूरी हो गईं। रामो एक लालसा वड़ि उर माहीं ॐ सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं ॐ तुम्हहिं देत अति सुगम गोसाईं ॐ अगम लाग मोहि निज कृपनाई एम फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। वह सहज भी है और कठिन भी । इसी से उसे कहते नहीं बनता । हे स्वामी ! आप तो उसे बड़ी सुगमता से दे पा सकते हैं पर मेरी कृपणता से वह मुझे अगम लग रही है। ॐ जथा दरिद्र विवुधतरु पाई ॐ बहु संपति माँगत सकुचाई तासु प्रभाउ जान नहिं सोई ॐ तथा हृदयँ मम संसय होई जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी वहुत सम्पत्तिं माँगने में संकोच है। १. पलक । २. कमल ।।