पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९१

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ॐ १८८ , अनि . * सब थकावट मिट गई; राजा सुखी हुआ । तुपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया। उसने उसे बैठने के लिये आसन दिया। फिर सूर्यास्त का समय जानके कर मधुर वाणी से कहा को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें 8 सुंदर जुवा जीव परहेजें ॐ चक्रवर्ति के लच्छन तोरे ॐ देखत दया लागि अति मोरे तुम कौन हो ? सुन्दर युवक होकर जीवन की परवा न करके, बन में अकेले ॐ क्यों फिरते हो ? तुम्हारे लक्षण तो चक्रवर्ती के हैं। तुमको देखकर मुझे बड़ी रामो दया आती है। ॐ नाम प्रतापभानु अवनीसा' ॐ तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा । राम फिरत अहेरे परेउँ भुलाई के बड़े भाग देखेउँ पद आई * रोज़ा ने कहा-हे मुनियों में श्रेष्ठ ! सुनो, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मन्त्री हूँ। शिकार में फिरते हुये राह भूल गया हूँ; बड़े भाग्य से * यहाँ अकिर मैंने आपके चरणों के दर्शन किये। हम कहँ दुरलभ दरस तुम्हारा ॐ जानत हौं कछु भल होनिहारा है ) कह मुनि तात भयेउ अँधियारा ॐ जोजन सत्तरि नगर तुम्हारा राम) | हमें तो आपका दर्शन दुर्लभ है; जान पड़ता है कुछ भला होने वाला है। मुनि ने कहा हे तात ! अँधेरा हो गया; तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन (राम) एम् । निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान। १ बसहु आजु अस जानि तुम्ह जायेहु होत बिहान १५६ अँधेरी रात है; जंगल घना है; कोई रास्ता नहीं है; हे बुद्धिमान् ! यह समझकर सुनो, आज यहीं ठहर जाओ, कल सवेरा होते ही चले जाना। तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलइ सहाइ ।। आपुन आवै ताहि पहिं ताहि तहाँ ले जाइ।१५९। (२) तुलसीदास कहते हैं—जैसा होनहार होता है, वैसी ही सहायता मिल जाती * है। भावी स्वयं पास नहीं आती; मनुष्य ही को वहाँ ( घटनास्थल पर ) पहुँचा देती है। * १. राजा । २. सवेरा । ३. होनहार ।।