पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९२

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५ १८६ । भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा ॐ बाँधि तुरंग तरु बैठ महीसा । सुमो नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही ॐ चरन बंदि निज भाग्य सराही | ‘हे स्वामी ! बहुत अच्छा ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े एम) को वृक्ष से बाँधकर, राजा बैठ गया। राजा ने मुनि की प्रशंसा बहुत प्रकार से की और उसके चरणों की वन्दना करके अपने भाग्य की सराहना की। पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई $ जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई । मोहि मुनीस सुत सेवक जानी नाथ नाम निज कहहु चखानी ) | फिर उसने सुन्दर कोमल वाणी से कहा--हे प्रभो ! आपको पिता जानकर मैं ढिंठाई करता हूँ। हे मुनीश ! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर हे नाथ ! अपना नाम ( धाम ) विस्तार से बताइये। तैहि न जान नृप नृपहि सो जाना ॐ भूप सुहृद सो कपट सयानी बैरी पुनि छत्री पुनि राजा को छल बल कीन्ह चहइ निज काजी राजा उसको नहीं जानता था । पर वह राजा को जानता था। राजा तो तुम | शुद्ध हृदय वाला था और वह चतुर कपटी था । एक तो बैरी, फिर क्षत्रिय, फिर राजा; वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था। समुझि राजसुख दुखित अराती' ॐ अँवाँ अनल इव सुलगइ छाती सरल वचन नृप के सुनि काना की बयर सँभारि हृदय हरपान | वह शत्रु अपने राज्य-सुख को स्मरण करके दुःखी था; उसकी छाती आवे की आग की तरह (भीतर ही भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने बैर को यादकर, वह हृदय में प्रसन्न हुआ । ॐ झपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।।

  • नाम हसार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत।१६०

वह कपट में डुबोकर युक्ति-पूर्वक कोमल वाणी बोला--मेरा नाम तो ॐ अब भिखारी है, क्योंकि मैं घरबार-विहीन और निर्धन हूँ। एम) कह नृप जे बिग्यान निधाना की तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना । सदा अपनप रहहिं दुराएँ ॐ सब विधि कुसल कुवेप वनाएँ १. शत्रु । २. याद करके । ३. समान ।