पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९३

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। १६० : अ व ८ के राजा ने कहा-जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमान होने से रहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाये रहते हैं। क्योंकि कुवेष बनाकर के रहने ही में सब तरह का कल्याण है। राम तेहि तें कहहिं संत छु ति टेरें ॐ परम अकिंचन प्रिय हरि केरें तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा * होत बिरंचि सिवहि संदेहा | इसी से तो वेद और संत पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन ही भगवान् को प्रिय होते हैं। आपके समान निर्धन, भिखारी और गृहहीन को देखकर मुझे ब्रह्मा और शिव का संदेह होता है। अर्थात् कहीं अपि ब्रह्मा या शिव तो नहीं हो ? जोऽसि सोऽसि तव चरन नमामी ॐ मो पर कृपा करिअ अब स्वामी सहज प्रीति भूपति कै देखी ६ आषु विषय बिस्वास विसेषी | आप जो हों, सो हों, आपके चरणों को नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी ! रामा कै मुझ पर अब कृपा कीजिये । मुनि ने अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और राम) अपने सम्बन्ध में उसका अधिक विश्वास देखकरॐ सर्व प्रकार राजहि अपनाई ॐ बोलेउ अधिक सनेह जनाई सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला ॐ इहाँ बसत बीते बहु काला सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह प्रकट करते हुये कहा—हे राजन् ! मैं तुमसे सच कहता हूँ, सुनो, यहाँ रहते हुए मुझे बहुत समय * बीत गया । है । अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु। राम लोकमान्यता अनल सम र तप कानन दाह।१६१ मा है। अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं स्वयं किसी पर अपने को प्रकट करता हूँ; क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है, जो तप-रूपी बन-को जला देती है। हैङ्क तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। 83 सुन्दर केकिहि पेखु बचन सुधा समअसन' अहि।। एम तुलसीदासजी कहते हैं—सुन्दर वेष देखकर मूढ़ ही नहीं, चतुर मनुष्य को १. आहार ।