पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९४

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  • १९१ ॐ भी धोखा खा जाते हैं। सुन्दर मोर को देखो, उसको बचन तो अमृत के समान सो और अहिार साँप का । ॐ तातें गुपुत रहउँ जग माहीं ॐ हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं राम्रो प्रभु जानत सव विनहि जनाएँ ॐ कहहु वन सिधि लोक रिझाएँ

इसी से मैं जगत् में छिपकर रहता हूँ । भगवान् को छोड़करे और किसी से | खुमो कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाये ही सब जानते हैं। फिर रामो बताओ, संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी ? तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरे की प्रीति प्रतीत मोहि पर तोरें अव जौं तात दुरावउँ तोहीं ॐ दारुन दोप घटई अति मोहीं • तुम पवित्र और सुन्दर बुद्धि वाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात ! अब यदि तुमसे कुछ छिपाऊँ, ॐ तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा । म) जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा छ तिमि तिमि नृपहि उपज विस्वासा देखा स्ववस करम भन बानी ॐ तब वोला तापस बगध्यानी | वह तपस्वी जैसे-जैसे उदासीनता की बातें कहता था, वैसे-वैसे राजा का विश्वास उस पर उत्पन्न होता जाता था । जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने के राम) वाले ( कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वाणी से अपने वश में जाना, राम) तब वह बोलानाम हमार एकतनु भाई ॐ सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई कहहु नाम कर अरथ बखानी ॐ मोंहि सेवक अति प्राप्त जानी हे भाई ! मेरा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा--मुझे अपना अत्यन्त अनुरागी सेवक जानकर अब अपने नाम का अर्थ मुझे समझाकर कहिये ।। ॐ ॐ आदि सृष्टि उपजी जबांहें तब उतपति मैं सोरि।। नास एतलु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ।१६२॥ (मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई * थी। तब से मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है। १. फिर ।