पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२०२

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- - - - --- के उस दुष्ट ने वही पिछला बैर याद करके, तपस्वी राजा से मिलकर सलाह । ) की और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावी-बश राजा ॐ ॐ ( प्रतापभानु ) कुछ समझ न सको। एम रिपुतेजसी अकेल अपि लघु करि गलिअ न ताहु। पुणे 12 अजहुँ देत दुख बिससिहि सिर अवसेषित' राहु।१७० तेजस्वी शत्रु अकेला हो, तो उसे छोटा न समझना चाहिये । राहु का सिर एम) ही शेष है, पर आज तक वह सूर्य-चन्द्रमा को दुःख दिया करता है। । तापस नृप निज सखहि निहारी ॐ हरषि मिलेउ उटि भयेउ सुखारी का मित्रहि कहि सब कथा सुनाई ॐ जातुधान' बोला सुख पाई तपस्वी राजा अपने मित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ, उठकर मिला है। * और सुखी हुआ । उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई। तब राक्षस आनन्दित । होकर बोला--- ॐ अब साधेॐ रिपु सुनहु नरेसा ॐ जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा राम परिहरि सोचु रहहु तुम्ह सोई ॐ विनु औषध विधि विधि खोई हे राजन् ! सुनौ, तूने मेरे कहने के अनुसार इतना काम कर लिया है, तो मैंने अब शत्रु को निशाने पर ले लिया है। तुम चिन्ता छोड़कर जाकर सो राम । रहो। विधाता ने बिना दवा ही के रोग को नष्ट कर दिया । । कुल समेत रिघु मूल वहाई के चौथे दिवस मिलव मैं श्राई म तापस नृपहि बहुत परितोषी ॐ चला महाकपटी अति रोपी | कुल सहित शत्रु को जड़-मूल से खोद-बहाकर, मैं चौथे दिन तुमसे आ मिलूंगा। वह महाछली और महक्रिोधी राक्षस तपस्वी राजा को बहुत ढाढ़स देकर चला गया। राम) भानुप्रतापहि बाजि समेता ॐ पहुँचाएसि छन माँझ निक्रेता ॐ नृपहि नारि पहिं सैन कराई ) हय गृह बाँधेसि वाजि वनाई ए उसने राजा भानुप्रताप को घोड़े-सहित क्षणभर में उसके घर पहुँचा दिया । * राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को घुड़साल में ठीक तरह से बाँध दिया। १. बचा हुआ । २. राक्षस । ३. अच्छी तरह से ।