पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२२१

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ॐ २१६ छ न । । एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं हैं। राजा * तुरन्त ही गुरु के घर गये । चरण छूकर, बड़ी विनय करकेनिज दुख सुख सब गुरहि सुनायेउ ॐ कहि वसिष्ठ बहुबिधि समुझायेउ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी ॐ त्रिभुवन विदित भगत भय हारी राम राजा ने अपना सब दुःख-सुख गुरु को सुनाया। वशिष्ठ ने उन्हें बहुत छु एम् प्रकार से समझाया और कहा---धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे। वे तीनों । लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे। सृङ्गी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा ॐ पुत्रकाम सुभ जग्य करावा तम, भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे ॐ प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हे * वशिष्ठ ने ऋगी ऋषि को बुलाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्ठि यज्ञ एम) कराया । मुनि ने भक्ति-सहित आहुतियाँ दीं। तब अग्निदेव हाथ में चरु लिये ॐ हुये प्रकट हुये ।। म जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा $ सकल काज भी सिद्ध तुम्हारा * यह हवि बाँटि देहु नृप जाई के जथा जोग जेहि भाग बनाई। | (अग्निदेव ने राजा दशरथ से कहा---) वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ ॐ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया । अब हे राजा ! इस हव्य को ले जाकर जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो।

  • तब अदृस्य पावक भए सकल सभहि समुझाई ।। ॐ परमानंद मगन नृप हरष न हृदय समाइ॥१८६ ।।

तब अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अंतर्धान हो गये। राजा परम आनंद में मग्न हो गये । उनको हर्ष हृदय में नहीं समा रहा था। ॐ तवहि राय प्रिय नारि बोलाई ॐ कौसल्यादि तहाँ चलि आई राम अरध भाग कौसल्यहि दीन्हा ॐ उभय भाग आधे कर कीन्हा । तब राजा ने अपनी प्यारी रानियों को बुलाया। कौशल्या आदि रानियाँ ए वहाँ आ गई। राजा ने द्रव्य को आधा भाग कौशल्या को दिया; फिर शेष आधे * के दो भाग किये ।। ॐ १. हविष्यान्न, खीर । २. दो।।